‘भारत के साहित्य का वैश्वीकरण करने में प्रवासी साहित्यकारों की अहम भूमिका है। भारत और भारतीयों के द्वारा जो रचा जा रहा है आज वह वैश्विक मंचों पर भी अपनी-अपनी व्याख्या के साथ प्रस्तुत है। बजरिए हिंदी सिनेमा आज हिंदी साहित्य भी विदेशों में लोकप्रिय हो रहा है’। हिंदी के प्रचार-प्रसार एवं हिंदी प्रशिक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा और वाणी फाउंडेशन की तरफ से हिंदी सेवी सम्मान समारोह के बाद डॉक्टर पद्मेश गुप्त ने जनसत्ता से ये बातें कहीं। ब्रिटेन में बसे भारतीय मूल के हिंदी लेखक पद्मेश गुप्त कहते हैं कि समयक्रम के अनुसार प्रवासी साहित्य की प्रवृत्ति में भी बदलाव आया है। इंटरनेट व सोशल मीडिया का भी इसपर बहुत प्रभाव पड़ा है। आधुनिक तकनीक ने कंप्यूटर पर हिंदी लिखने के साथ इसके आदान-प्रदान को भी आसान बनाया है।
मूल रूप से कवि और कहानियां भी लिखने वाले गुप्त का कहना है कि कविता और कहानी ही वह विधा है जो प्रवासी साहित्यकारों के बीच लोकप्रिय है। इन विधाओं के जरिए प्रवासी लेखक बहुत कुछ रच रहे हैं। ब्रिटेन के लेखक सत्येंद्र श्रीवास्तव का जिक्र करते हुए गुप्त कहते हैं कि उन्होंने मुझसे कहा था, ‘जितना लिख सकते हो लिखो’। यह वाक्य मेरे लिए बहुत ही प्रेरणादायक रहा है और मैं ज्यादा से ज्यादा लिखने की कोशिश करता हूं। पद्मेश की कविताएं समकालीन समय का कोलाज हैं। अपने अनोखे बिंबों से वे नए समाज का ताना-बाना बुनते हैं। पहचान के बिंबों के इस समय में निज भाषा की पहचान को कैसे देखते हैं? इस सवाल पर डॉक्टर पद्मेश ने कहा कि मैं आपको एक उदाहरण बताता हूं। कुछ समय पहले मैं इंग्लैंड में एक विश्वविद्यालय के कुलपति से मिला। बातचीत के क्रम में मैंने उनसे कहा कि मैं भी लिखता हूं, लेकिन मैं हिंदी में लिखता हूं। मेरे हिंदी रचनाकार होने की बात जानकर उन्होंने मुझे बड़े सम्मान के भाव से देखा।
उन्होंने कहा कि आप तो हमारे लिखे को विस्तार देते हैं। उनके कहने का मतलब यह था कि आप ब्रिटेन में रहते हैं और यहां के अनुभवों के बारे में हिंदी में लिखते हैं। आप हमारी संस्कृति को भारत तक पहुंचाते हैं। इंग्लैंड के विश्वविद्यालय के एक वीसी का हिंदी और हिंदी लेखक के बारे में ऐसा सोचना मेरे लिए बहुत ही सुखद अनुभव था।
डॉक्टर पद्मेश कहते हैं कि आज भी विदेशों में हिंदी को सबसे ज्यादा लोकप्रिय हिंदी सिनेमा ने ही किया है। उन्होंने कहा कि कुछ समय पहले रोमानिया के बुकारेस्ट में एक रोमानियन विद्वान ने मुझसे कहा था कि वे राज कपूर की फिल्मों के बड़े प्रशंसक हैं और उनकी हिंदी सीखने की शुरुआत राज कपूर की फिल्में देखने से ही हुई थी।
रूस में ऐसे बहुत से अध्यापक हैं जिन्होंने हिंदी सिनेमा के माध्यम से हिंदी भाषा सीखनी शुरू की। और आज तो यू-ट्यूब के जरिए विदेशों में लोग बहुत आराम से हिंदी फिल्मों से जुड़ते हैं क्योंकि इसके जरिए उनके पास पूरी हिंदी फिल्मों का खजाना होता है, ढेरों विकल्प होते हैं। लोग हर तरह की हिंदी फिल्में पसंद कर रहे हैं और हिंदी से जुड़ रहे हैं। लेकिन साहित्य और सिनेमा की तुलना में समाचार की बात करें तो वहां अंग्रेजी की ही अगुआई है। अभी भी लोग खबरों से जुड़ने के लिए अंग्रेजी का माध्यम चुनते हैं क्योंकि उनके लिए यह ज्यादा आसान है।