If the IL&FS company defaults to 90000 crore then you will also drown.
बहुत ही कम लोगों ने IL&FS का नाम सुना होगा। दरअसल यह एक सरकारी क्षेत्र की कंपनी है जिसकी 40 सहायक कंपनियां हैं। इसे नॉन बैंकिंग फाइनेंस कंपनी की श्रेणी में रखा जाता है। जो बैंकों से लोन लेती हैं। जिसमें कंपनियां निवेश करती हैं और आम जनता जिसके शेयर ख़रीदती हैं।
इस कंपनी को कई रेटिंग एजेंसियों से अति सुरक्षित दर्जा हासिल है। एए प्लस की रेटिंग हासिल है। यह कंपनी बैंकों से लोन लेती है। लोन के लिए संपत्ति तो गिरवी नहीं रखती है लेकिन काग़ज़ पर गारंटी दी जाती है कि लोन इसे चुका देंगे। क्योंकि इसके पीछे भारत सरकार होती है और इसलिए ही इसकी गारंटी पर बाज़ार को भरोसा होता है। मगर एक हफ्ते के अंदर ही इसकी रेटिंग को एए प्लस से घटाकर कूड़ा करकट कर दिया गया है। अंग्रेज़ी में इसे जंक स्टेटस कहते हैं। और अब यह कंपनी कबाड़ हो चुकी है। जो कंपनी 90,000 करोड़ लोन डिफाल्ट करने जा रही हो वो कबाड़ नहीं होगी तो क्या होगी।
साधारण सी बात है कि इसमें जिनका पैसा लगा है वो भी कबाड़ हो जाएंगे। बता दे कि प्रोविडेंट फंड और पेंशन फंड का पैसा लगा है। और यह आम लोगों की मेहनत की कमाई का पैसा है। जो अगर डूब गया तो सब डूबेंगे। इसमें म्युचुअल फंड कंपनियां भी निवेश करती हैं। काग़ज़ पर लिखे वचन नामे पर बैंकों ने आईएल एंड एफएस और उसकी सहायक कंपनियों को लोन दिए हैं। और अब वही काग़ज़ रद्दी का टुकड़ा हो गया है। इसी 27 अगस्त से जब यह ग़ैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी तय समय पर लोन नहीं चुका पाई और डेडलाइन मिस करने लगी तब शेयर मार्केट को सांप सूंघ गया। 15 सितंबर से 24 सितंबर के बीच सेंसेक्स 1785 अंक गिर गया। नॉन बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के शेयर काफी तेजी से गिरने लगे।
स्माल इंडस्ट्री डेवलपमेंट बैंक ऑफ इंडिया ने आईएल एंड एफएस और उसकी सहायक कंपनियों को लगभग 1000 करोड़ का कर्ज़ दिया है। 450 करोड़ तो सिर्फ आईएल एंड एफएस को दिया है। बाकी 500 करोड़ उसकी दूसरी सहायक कंपनियो को लोन दिया है। वहीं सिडबी ने इन्सॉल्वेंसी कोर्ट में अर्ज़ी लगाई है ताकि इसकी संपत्तियां बेचकर उसका लोन जल्दी चुकता हो सके। जहां एक ओर डूबती कंपनी के पास कोई अपना पैसा नहीं छोड़ सकता। वहीं दूसरी तरफ आईएल एंड एफएस और उसकी 40 सहायक कंपनियों ने पंचाट की शरण ली है। इस अर्ज़ी के साथ कि उसे अपने कर्जे के हिसाब-किताब को फिर से संयोजित करने का मौका दिया जाए। इसका मतलब यह हुआ कि जब तक इसका फैसला नहीं आएगा, तब तक यह कंपनी अपना लोन नहीं चुकाएगी।
वहीं अब सरकार ने इस स्थिति से बचाने के लिए भारतीय जीवन बीमा को बुलाया है। आईएल एंड एफएस में सरकार की हिस्सेदारी 40.25 प्रतिशत है। भारतीय जीवन बीमा की हिस्सेदारी 25.34 प्रतिशत है। और बाकी भारतीय स्टेट बैंक, सेंट्रल बैंक और यूटीआई की भी बराबर की हिस्सेदारी है। हाल के दिनों में जब आईडीबीआई पर नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स का बोझ बढ़ा तो भारतीय जीवन बीमा को बुलाया गया। और भारतीय जीवन बीमा निगम के भरोसे कितनी डूबते जहाज़ों को बचाएंगे, किसी दिन अब भारतीय जीवन बीमा के भी डगमगाने की ख़बर न आ जाए। फिलहाल भारतीय जीवन बीमा निगम के चेयरमैन का कहना है कि आईएल एंड एफएस को नहीं डूबने देंगे। बता दे कि आईएल एंड एफएस ग़ैर बैंकिंग वित्तीय सेक्टर की सबसे बड़ी कंपनी है। और इस सेक्टर पर बैंकों का लोन 496,400 करोड़ है। यदि यह सेक्टर डूबा तो बैंकों के इतने पैसे भी रफ्तार से डूब जाएंगे। मार्च 2017 तक लोन 3,91,000 करोड़ था। जब एक साल में लोन 27 प्रतिशत बढ़ा तो भारतीय रिज़र्व बैंक ने इश पर रोक लगा दी।
सवाल ये उठता है कि भारतीय रिज़र्व बैंक इतने दिनों से क्या कर रहा था। जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक ही इन वित्तीय कंपनियों की निगरानी करता है। म्यूचुअल फंड का 2 लाख 65 हज़ार करोड़ लगा है। हमारे आपके पेंशन और प्रोविडेंड फंड का पैसा भी इसमें लगा है। इतना भारी भरकम कर्ज़दार डूबेगा तो क़र्ज़ देने वाले, निवेश करने वाले सब के सब डूबेंगे।
आईएल एंड एफएस का ज़्यादा पैसा सरकार के इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में लगा है. इसके डूबने से तमाम प्रोजेक्ट अधर में लटक जाएंगे। हुआ यह है कि टोल टैक्स की वसूली का अनुमान ज़्यादा लगाया गया मगर उनकी वसूली उतनी नहीं हो पा रही है। इससे प्रोजेक्ट में पैसा लगाने वाली कंपनियां अपना लोन वापस नहीं कर पा रही हैं। इन्हें लोन देने वाली IL&FS भी अपना लोन वापस नहीं कर पा रही है। हमने इस लेख के लिए बिजनेस स्टैंडर्ड और इंडियन एक्सप्रेस की मदद ली है।
मुझे नहीं पता कि आपके हिंदी अख़बारों में इस कंपनी के बारे में विस्तार से रिपोर्टिंग है या नहीं। पहले पन्ने पर इसे जगह मिली है या नहीं। दुनिया के किसी भी देश में सरकार की कोई कंपनी संकट में आ जाए और उसमें जनता का पैसा लगा हो तो हंगामा मच जाता है। भारत में ऐसी ख़बरों को दबा कर रखा जा रहा है।
तभी बार-बार कह रहा हूं कि हिंदी के अख़बार हिंदी के पाठकों की हत्या कर रहे हैं। सूचना देने के नाम पर इस तरह से सूचना देते हैं कि काम भर हो जाए। बस सरकार नाराज़ न हो जाए लेकिन आम मेहनतकशन लोगों के प्रोविडेंट फंड और पेंशन फंड का पैसा डूबने वाला हो, उसे लेकर चिंता हो तो क्या ऐसी ख़बरों को पहले पन्ने पर मोटे-मोटे अक्षरों में नहीं छापना चाहिए था?
विचारक- रवीश कुमार