जब कोई स्त्री कैमरा उठाती है तो सिनेमा बदलने लगता है। 70वें कान फिल्म समारोह के प्रतियोगिता खंड मे दो महिला निर्देशकों की फिल्में चर्चा में हैं। जापान की नाओमी क्वासे की ‘हिकारी’ और अमेरिका की सोफिया कापोला की ‘द बीगिल्ड’ ने सिनेमा का स्त्रीवादी एजंडा पेश कर दिया है। नाओमी कान में पांचवीं बार प्रतियोगिता खंड मे चुनी गई हैं। नाओमी क्वासे की हिकारी, जिसे अंग्रेजी में रेडियंस (चमक) कहा गया है, आधुनिक जापानी सिनेमा मे मील का पत्थर बनने की राह पर है। अपनी पिछली फिल्मों- स्टील द वाटर (2014) और स्वीट बींस (2015) की भावभूमि का विस्तार करते हुए उन्होने एक ऐसा मेलोड्रामा रचा है कि चकित हो जाना पड़ता है। एक लगभग अंधे हो चुके फोटोग्राफर मासाया नाकामोरी ( माजातोसी नगाशे)और अंधे लोगों के लिए फिल्मों का वर्णन लिखनेवाली उत्साही लड़की मिसाको ओजाकी (अयामें मिसाकी) की दोस्ती के आईने में दिन-रात, जंगल-समुद्र, गांव-शहर, धरती-आकाश को देखने में रौशनी की चमक को महसूस किया जा सकता है। नगीसा ओशीमा की बहुचर्चित फिल्म द रेल्म आफ द सेंसेज (1976) के नायक तत्सुआ फुजी की उपस्थिति फिल्म को काव्यात्मक बनाती है ।
नाओमी ने अंधे हो रहे नायक की संवेदना से ध्वनियों का कोलाज रचा है। एक फिल्म शो में दोनों मिलते हैं और चित्रों के जरिए अपने अपने अतीत का वह चमकदार संसार देखते हैं जो अबतक उनसे ओझल था। एक मार्मिक दृश्य मे सड़क पर गिरने के बाद एक युवक उसका कैमरा लेकर भाग जाता है। वह उठता है और उसके स्टूडियो जाकर कैमरा वापस छीनते हुए कहता है -‘कैमरा मेरा दिल है भले ही अब मैं इस्तेमाल नहीं करता।’ उसकी पत्नी उसको छोड़ गई है। उसके पास अतीत की सुनहरी यादें है जब वह फोटोग्राफी का नायक हुआ करता था। उसकी आंखों मे जो थोड़ी रौशनी बची है कैमरा वहां से चीजों को दिखाता है।
सोफिया कापोला ने निकोल किडमैन को केंद्र में रखकर द बीगिल्ड की रिमेक मे पांच औरतों और दो बच्चियों के गुरुकुल में घायल सैनिक का जो वृतांत पेश किया है उसकी स्त्रीवादी व्याख्या की जा रही है। अमेरिकी गृहयुद्ध के समय जंगल में एक बोर्डिंग स्कूल है जहां केवल औरतें रहती हैं। शत्रु पक्ष का एक घायल सैनिक वहां शरण लेता है। उसके थोड़ा ठीक होते ही उस रहस्यमय से भवन में चाहत, सेक्स, वर्जना, दुविधा और प्रतिशोध का जो खेल शुरू होता है वह अप्रत्याशित क्लाइमेक्स पर खत्म होता है।
सोफिया कापोला ने कसी हुई पटकथा को पांच औरतों और एक पुरुष के सघन अभिनय मे पिरोया है कि थ्रिलर का अनुभव होता है। वहां की औरतों में पुरुष के प्रति स्वीकार-अस्वीकार की दुविधा ही फिल्म को आगे बढ़ाती है। कैमरा इमारत के बाहर बहुत कम जाता है, लेकिन अंत तक उत्सुकता बनी रहती है। नाओमी क्वासे और सोफिया कापोला की ये फिल्में अपने स्त्रीवादी नजरिए के कारण महत्त्वपूर्ण है ।