वंदना शर्मा
पिछले कुछ सालों से बॉलीवुड फिल्मों को कड़ी टक्कर दे रहे पॉलीवुड ने इस बार अपनी नई फिल्म ‘साहिब बहादुर’ लाकर हिंदी फिल्मों के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा पैदा कर दी है। अभी तक सिर्फ कॉमेडी के तड़के और विदेशों में बसे पंजाबियों को लुभाने के लिए पंजाब और विदेशी लोकेशंस दिखा दर्शकों को खींचने की सफल कोशिश के बाद यह फिल्म एक अपराध थ्रिलर (रहस्य रोमांच) लेकर आई है। पूरी फिल्म एक बंद मुट्ठी सी लगती है। सभी उंगलियां कस कर एक दूसरे को पकड़े हुए। कहीं कोई संवाद या हालात न तो छूटते हैं और न ही अतिरिक्त लगते हैं।
बिना नायिका के साहिब बहादुर
बाहुबली जैसी फंतासी नहीं, शाहरुख जैसा स्टाइल नहीं, संजय लीला भंसाली जैसी भव्यता नहीं पर थोड़े से बजट वाली इस फिल्म में दर्शकों को अंत तक बांध रखने की क्षमता जरूर है। न कोई अश्लीलता, न द्विअर्थी संवाद और न ही नायिका के साथ नाचने की प्रक्रिया, फिर भी सिवाय इंटरवल के पूरा समय दर्शकों को सीट के साथ ही चिपके रहने को मजबूर कर देती है यह फिल्म। बिना नायिका वाली इस फिल्म में नायक पुलिस अधिकारी है। इस सस्पेंस थ्रिलर में कॉमेडी पानी की तरह एक प्रवाह में बहती है। संवादों और हालातों पर हंसी छूटती है पर उसके लिए खुलकर हंसने की गुंजाइश पूरी है। मजाक में ही कहे गए कुछ संवाद पंजाब के मौजूदा हालात पर कटाक्ष भी करते हैं। ऐमी विर्क बहुत सहज और प्रभावशाली अभिनय करते हैं। फिल्म में सस्पेंस इतना कि आखिर तक अंदाजा भी नहीं लग पाता कि हत्यारा कौन है।
लाहौरिए ने उठाया सवाल
पिछले कुछ महीनों में प्रदर्शित पंजाबी फिल्में ‘मंजे-बिस्तरे’, ‘लाहौरिए’ के बाद ‘साहिब बहादुर’ कमाई के मामले में लगातार रेकार्ड कायम कर रही है। 90 के दशक के माहौल को लेकर बनी ये फिल्में इतनी प्रभावी रही कि इनके समानांतर लगी हिंदी ब्लाकबस्टर का भी इनकी कमाई पर कोई असर नहीं रहा। ढाई सौ करोड़ में बनी 1500 करोड़ कमाने वाली बाहुबली-द कनफ्यूजन के सामने महज पांच करोड़ में बनी लाहौरिए 40 करोड़ का आंकड़ा पार कर गई और अभी भी खूब चल रही है। एक साथ 40 थिएटरों में लगी इस फिल्म ने पंजाब में रहने वाले उन लोगों की नब्ज टटोली है जिनके बुजुर्ग लाहौर से आकर यहां बसे हैं और अभी भी उनकी बातों में कहीं न कहीं लाहौर बसता है। पाकिस्तान के साथ तुलनात्मक संवाद बहुत संजीदा बन पड़े हैं। खास कर ‘वहां की सास भी हमारी जैसी, वहां की बहू भी हमारे जैसी, वहां के बुजुर्ग भी हमारे जैसे…’ संवाद तो सभी के लिए एक नया सवाल खड़ा कर जाता है कि जब सब कुछ एक जैसा है, हमारी बुराइयां भी एक जैसी हैं तो फिर किसलिए सीमाओं पर दोनों तरफ जवान जान गंवा रहे हैं।
मंजे-बिस्तरे में दिखा बदलता समाज
इसी तरह ‘मंजे-बिस्तरे ’ में 1990 में आर्थिक उदारवाद की आहट के साथ उस समय के शादी समारोहों की सही तस्वीर दिखाई देती है जब दुल्हन के परिजन हर चीज के लिए रिश्तेदारों और पड़ोसियों पर निर्भर होते थे और उसमें जो मिठास होती थी वह आजकल होटलों-रेस्तराओं में अलग-अलग कमरों में सिमटे रिश्तेदारों और दोस्तों को मांगे नहीं मिलती। मिलती है तो बस ‘निजता’।
वर्ष 2010 से शुरू हुआ पंजाब फिल्मों का स्वर्णिम दौर अभी जारी है और दिनोंदिन तरक्की कर रहा है। हालत यह हो गई है कि हर शुक्रवार को मॉल में हिंदी फिल्मों के साथ ही नई पंजाबी फिल्म आती है और बॉक्स आफिस पर खूब धमाल मचाती है। हाल ही की फिल्मों में तो तकनीकी पक्ष भी बहुत प्रभावी बन पड़ा है।