Sunday, December 22, 2024
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हिंदी साहित्य का फिल्मों से जुड़ा नहीं गहरा नाता!

SI News Today

जहां बड़े-बड़े साहित्यकार नाकाम हो गए, वहां गुलशन नंदा और अब चेतन भगत की सफलता ने बता दिया कि मौलिक लेखन में नाटकीयता और रोमांचकता के फिल्मी तत्व जुड़ जाएं तो उसके लिए फिल्मों में पुख्ता जमीन बन सकती है। गुलशन नंदा के उपन्यासों में कल्पना की एक ऐसी रंग बिरंगी दुनिया होती थी जिसमें स्वाभाविकता का रत्ती भर भी अंश नहीं होता था। इसीलिए उनके एक दर्जन से ज्यादा उपन्यासों पर फिल्में बनीं। सफल भी हुईं। अब उसी राह पर चेतन भगत हैं।

साहित्य के प्रति मुंबइया फिल्मकारों का अजीब किस्म का पारंपरिक दुराव रहा है। दुनिया भर में साहित्य पर कई उल्लेखनीय फिल्में बनी हैं। भारतीय साहित्य भी कम समृद्ध नहीं रहा है लेकिन उस पर फिल्म बनाने से हमेशा संकोच किया गया है। कुछ अलग तरह के पूर्वग्रहों से फिल्मकार ग्रस्त हैं। इसमें सबसे बड़ी धारणा तो यही है कि साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्में सफल नहीं होतीं। दूसरी समस्या किसी उपन्यास को फिल्मी रूप देने की है। दोनों विधाएं अलग हैं। साहित्यकार जो लिखता है उसे उसकी मूल भावना के साथ फिल्माना आसान नहीं होता।

चालीस के दशक में मुंशी प्रेमचंद, उपेंद्र नाथ अश्क, भगवती चरण वर्मा, अमृत लाल नागर जैसे कई साहित्यकारों ने फिल्मों के लिए भी लेखन किया। सत्तर के दशक में कमलेश्वर, शरद जोशी व मनोहर श्याम जोशी भी मैदान में कूदे पर फिल्मी दुनिया के रंग-ढंग में उनकी रचनाधमिर्ता विस्तार नहीं ले सकी।
साहित्यिक कृतियों पर बनी ज्यादातर फिल्में व्यावसायिक सफलता नहीं पा सकीं। दरअसल इन पर बनी फिल्मों में अपवाद के रूप में कुछ को छोड़ कर किसी बड़े स्टार ने काम करने में दिलचस्पी नहीं ली। बहरहाल, हिंदी साहित्य पर बनी कुछ फिल्में चर्चित भी हुईं। मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों पर ‘गबन’, ‘गोदान’, ‘हीरा मोती’, ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जैसी कई फिल्में बनीं। 1979 में सत्येन बोस के निर्देशन में बनीं ‘सांच को आंच नहीं’ का मूल आधार प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ से लिया गया था। 1941 में केदार शर्मा ने भगवती चरण वर्मा के उपन्यास ‘चित्रलेखा’ को फिल्मी रूप दिया। 23 साल बाद केदार शर्मा ने फिर ‘चित्रलेखा’ बनाई। पर, फिल्म सफल नहीं हो पाई।

फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास ‘मारे गए गुलफाम’ पर गीतकार शैलेंद्र ने जब ‘तीसरी कसम’ बनाई तो मित्रता के नाते राज कपूर व वहीदा रहमान जैसे सितारों ने फिल्म में काम किया। लेकिन जैनेंद्र जैन के उपन्यास पर ‘त्यागपत्र’ बनाते समय निर्माता को नए कलाकारों से गुजारा करना पड़ा। सद्भावना के नाते राखी ने रमेश बक्षी के उपन्यास पर बनी ‘27 डाउन’ में काम कर लिया। मोहन राकेश के उपन्यास पर ‘उसकी रोटी’ बनाते समय मणिकौल को ऐसा कोई सहारा नहीं मिला। ऐसे ही हालात में कुमार शाहनी ने निर्मल वर्मा के उपन्यास पर फिल्म ‘माया दर्पण’ बनाई। यही स्थिति राजेंद्र यादव के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘सारा आकाश’ के साथ रही। मन्नू भंडारी की कहानी पर बनी ‘रजनीगंधा’ की सफलता चौंकाने वाली रही। गीता बाली ने राजिंदर सिंह बेदी के उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ पर फिल्म बनानी शुरू की लेकिन चेचक की वजह से असमय उनकी मौत हो जाने से फिल्म अटक गई। 1986 में सुखविंदर चड्ढा ने फिर कोशिश की।

फिल्म सफल भी हुई और खास बात यह है कि इसमें हेमा मालिनी, ऋषि कपूर व पूनम ढिल्लो जैसे सितारों ने काम किया। वैसे यह हमेशा अनिश्चित ही रहा कि क्या सितारों की मौजूदगी साहित्यिक फिल्मों को सफल करा सकती है। विजयदान देथा के उपन्यास पर शाहरुख खान ने ‘पहेली’ बनाई थी, लेकिन फिल्म नहीं चली।

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