एक कहावत तो आपने सुना ही होगा। पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब…लेकिन अब ऐसा लगता है कि दौर बदल गया है। क्योंकि, अब पढ़े-लिखे लोग कम सैलरी पर काम करने को मजबूर हैं और अंगूठा छाप लोग मुंह मांगी सैलरी मांग रहे हैं। सुनकर तो आपको बड़ा ही अजीब लग रहा होगा, लेकिन यह सच है। बिहार के सहरसा जिले के रहने वाले झकस कुमार नोएडा और ग्रेटर नोएडा के गांवों में भैंसे चराते हैं। उन्हें इस काम के लिए 25 हजार रुपये सैलरी मिलता है। जो किसी पढ़े-लिखे कर्मचारी के बराबर है।
बता दें कि झकस कुमार वैसे तो अनपढ़ हैं, लेकिन वो भैंसे चराकर बड़ी आसानी से अपने परिवार का गुजारा कर लेते हैं। झकस कुमार के पास अभी 50 भैंसे हैं। हैरानी की बात ये है कि झकस कुमार अकेले नहीं हैं जो ये काम कर रहे हैं। उनके जैसे कई और लोग हैं जो यूपी-बिहार से आकर भैंसे चराने का काम कर रहे हैं। उन्हें भी इस काम के लिए लगभग इतना ही सैलरी दिया जा रहा है।
गांव के एक किसान ने बताया कि यहां जो लोग भैंस चराने का काम कर रहे हैं, वे मुख्य रूप से एनसीआर मे फसल की बुआई और कटाई के लिए आते थे। इधर, किसानों के पास इतना समय नहीं होता कि वे दिनभर भैंसों को चराने में लगे रहें। किसानों ने ही इन मजदूरों को आइडिया दिया कि वे उनके भैंसों को चरा दिया करें और बदले में प्रति भैंस 500 से 700 रुपये महीना ले लिया करें।
किसानों का यह प्रस्ताव मजदूरों को अच्छा लगा। एक के बाद एक मजदूर भैंस चराने के लिए आने लगे। अब इन लोगों को भैंस चराना अच्छा लगता है। क्योंकि 20-25 हजार सैलरी में उनके परिवार का गुजारा हो जाता है। किसान अनंगपाल ने बताया कि एक भैंस औसतन 8 से 10 किलो रोजाना दूध देती है। इस तरह महीने में 15 हजार रुपये की कमाई हो जाती है। ऐसे में 500 रुपये लेकर कोई अगर भैंसों को चरा देता है तो इससे उनका ही फायदा है। चरवाहे रखने से उनका काफी समय बचता है।
किसानों ने बताया कि ये चरवाहे यहीं गांव में अपने परिवार के साथ किराये के मकान में रहते हैं। सुबह आठ बजे से ये घर-घर जाकर भैंसों को खोल लेते हैं और उन्हें गांव के बाहर खेतों की ओर ले जाते हैं। भैंसों को चराने के बाद हिंडल या यमुना नदी में नहला देते हैं। उसके बाद शाम पांच बजे वापस भैंसों को गांव ले आते हैं। एक चरवाहे ने बताया कि उनके गांव के बहुत से लोग अब यही काम कर रहे हैं। इस काम में अधिकतर बिहार और पूर्वी यूपी के लोग शामिल हैं।