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औरत महज़ तीज-करवाचौथ से ‘बेचारी’ नहीं बनी है। औरत बेचारी बनी है क्योंकि वो किचन की महारानी होने के बावजूद कभी अपनी पसन्द का भोजन नहीं बनाती, परमेश्वर या फिर बच्चों से ही पूछने आती है कि क्या बना दूँ। वो कपड़े अनायास ही उसकी ‘पसंद’ बन जाते हैं जो उसके पति/बॉयफ्रेंड को पसन्द हों और अपनी पसन्द वो खुद भूल जाती है। औरत बेचारी बनी है क्योंकि वो घर ठीक करने से लेकर पति की चड्डी तक इसलिए धोती है क्योंकि इसे वो काम नहीं, फ़र्ज़ (क़र्ज़ ही पढ़ें) समझती है। औरत की ये हालत इसलिए है क्योंकि वो सबकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी तलाशती है और यह भूल जाती है कि कुदरत और अपने महबूब से मुहब्बत करने से पहले खुद से मुहब्बत करना कितना ज़रूरी है। औरत सिर्फ़ इसलिए बेचारी नहीं है कि वो निर्जल व्रत रखती है, वो इसलिए भी बेचारी है कि उसे अपनी दुनिया मानने वाले पति ने उसे कभी एक प्याली चाय भी नहीं पिलायी। उसके शौहर को नहीं पता कि बीवी की पसंदीदा सब्ज़ी क्या है। उसके बच्चों को नहीं पता कि माँ को कौन-सा रंग पसंद है। हम सभी औरत की बेचारगी में एक-एक ख़ुराक बढ़ा रहे हैं और औरत प्रशांत महासागर बनी है जो ख़ुराक दर ख़ुराक से हिलती भी नहीं।