रॉबर्ट्सगंज को आज भी अधिकतर लोग रापटगंज कहते हैं … राबर्ट्सगंज कहने वाले पढ़ाई और करियर के लिए रापटगंज छोड़ चुके हैं…. मनवा भले उही बसता हो…. यह कस्बा बदलकर आज भी शहर नहीं बन पाया है…. विकास के नाम पर ताम-झाम बढ़ गया है बस्स….
रेलवे फटका से बढ़ौली चौराहा का रिक्शा वाला पाँच रुपया लिया करता था….पाँचे रुपया में सोनूआ की साईकिल का ओभर हालिंग हो जाता था….तब ओभर ब्रिज नहीं था…. हम नंगे पाँव गली, सड़क, चौराहा नाप लेते थे… अम्मा चिल्लाती थी … लेकिन सुनइये नहीं देता था… अम्मा गुस्साती थी ओ दिखईये नहीं देता था… तब बाबू सोटा लइके दौड़ाते थे…. कुटाई के कुछ निशान बाकी रहई गयल….
विजयगढ़ पैलेस में गंदा पिक्चर नहीं लगता था… तब्बो हमन के पिक्चर ना देखावे रहल…. लड़कन के मौज रही….आरएसएम के लड़के फ़ादर इस्कूल के लड़कों के लिए मुख़्तार अंसारी हुआ करते थे…. औउर लड़कियन पक्की वाली गऊ माता…
आरटीयस के बग़ल वाले पार्क का फुहारा शाम को रेगूलर चला करता था…. सब लोग संन्झा के उहा जात रहा…
जोगी राम जैन का दुकान ही हमारे लिए बिग बाज़ार था… औउर मिश्रा स्वीट्स हाउस हल्दीराम….
रापटगंज में लड़के बात नहीं करते…. बकचोदी करते थे… अब पता नहीं क्या करते हैं…
तब आर्यन, माईरा के लिए फ़ेसबुक पर पोस्ट नही लिखता था….बल्कि अजयवा, पूजवा के लिए अपने इस्कूल के डेस्क पर बड़ा अक्षर में A और P साथ में लिखता था…..सब लोग समझते थे की वो अजय पांडेय लिखा है…. जबकि उसका मतलब Ajay weds pooja था….उस जमाने में हम परेम नहीं करते थे…. सीधे शादी… परेम का सिस्टमे नहीं था…
उस समय लड़के अपने गर्ल फ़्रेंड का फ़ोटो लाइक नहीं करते थे…. बस्स जिस रंग का पेन लड़की लायी है…. वैसा ही पेनवा लड़का वोही दिन लक्ष्मी या लानंदा बुक डिपो से ख़रीदबय करेगा… तब्बो लड़की इशारा नहीं समझती थी…. गूगे-बहरी ही रहती थी… उसके लिए परेम का मतलब माँ बनना था…. कभो-कभो नैन मटका कर लेती थी….
गर्ल फ़्रेंड का मतलब ये नही की लड़की हमसे फ़ोन या WhatsApp पर बात करेगी…
बस हमारी नज़र पसंद के लड़की से मिली और वो हमारे दोस्तों की बन गयी भौजाई…. लड़कियाँ बस्स लजाकर भक्क कहती थीं…
ओ टाइम तो एतना हिम्मत भी नहीं था… कि लड़की को लेटर दे दिया जाय…का पता लड़की को बुरा लग गया…. और चली गयी द्विवेदी सर के यहाँ तो वो मार के बोखार छोड़ा देते…. बाबू का कहर अलगे था….
लेटर देने का एक्के तरीका था और वो आज वाले कुछ-कुछ Sarahah जैसा था….
लड़के अपने दिल की बात म्यूज़िक वाले ग्रीटिंग कार्ड पर लिख कर लड़की के साइकिल वाले कैरियर में फँसा देते थे…. लड़कियन के दिल भी धड़के जाते… लेकिन चुप्पे रहना ठीक था….
ना ना…… लड़के बिचारे
प्रेशक वाले कालम में अपना नाम कभो नहीं लिखते….दिवेदी सर,शुक्ला सर का ख़ौफ़ लड़कों को कामयाब परेमी बनने से रोक देता….
तब इको प्वाइंट को मारकूंडी कहा जाता था… बगलय में चूर्क है…. उसको तो ख़ैर आज भी लड़के चूरुक ही कहते हैं… घूमने सिर्फ रेनुकूट ही जाते थे…सड़के एतनी चौड़ी नहीं थी… तब एतना ट्रैफ़िक नहीं था…. महिला थाना नहीं था….
सीतला मंदिर पे बरहो महीना मेला तब भी था…. आदमी औरत का भी…. गौ माता का भी…
मेला से याद आया……जाड़ा ख़तम होने वाले मौसम में बरइले और गौरी संकर का मेला रापटगंज वाले ज़रूर करते थे… औउर जाड़े में रामायण के बाद कवि सम्मेलन अब्बो होता है… एक बार गोपालदास नीरज भी आए थे… मने अच्छा होता है… लड़कियाँ आज भी कविता-पाठ नहीं करती… रिबाज नाही बदला है….
रेलवे स्टेशन पर दफ़्ती वाले टिकट मुश्किल से मिला करते थे… पर त्रिवेणी में सीट बड़े प्रेम से मिल जाता था…. जो इलाहाबाद चला जाता था… वो बड़का पढ़ाकू बन जाता था…
आज और कल के दिन में जो फर्क है…. वही आज और कल के समय में था…..
याद आते हैं वो दिन…. जो कभी पुराने नहीं पड़े….
सुकू भरे दिन…लात खाने के दिन…. लतियाने के दिन….दोस्तों के दिन….दोस्ती के दिन….टाई पहन के इस्कूल जाने वाले दिन…. सायकिल पे ट्रिप्लिंग के दिन…. टीचरो से मार खाने के दिन….मुर्ग़ा बनने वाले दिन….
कालर खड़ा करके बैटिंग करने वाले दिन…. सत्तू और खो-खो वाले दिन…. शक्तिमान के दिन…चंद्रकांता के दिन… मोगली के दिन… फादर स्कूल वाले दिन… गुरुनानक वाले दिन… .
रापटगंज में आजो सीत्वा ही हूँ अब तक सीत नहीं बन पाई हूँ.