आमतौर पर यह माना जाता है कि परछार्इं कभी आपका पीछा नहीं छोड़ती। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि साल में अमूमन दो बार परछार्इं कुछ पलों के लिए आपका पीछा छोड़ देती है। हम इस दिवस को ‘शून्य परछार्इं दिवस’ यानी ‘जीरो शैडो डे’ कहते हैं। काफी पहले मां अक्सर कहती थीं कि बाहर के काम जल्दी निपटा लो, नहीं तो बारह बज जाएंगे। यहां बारह बजने से तात्पर्य सिर के गरम हो जाने से है जो कि सूर्य के ठीक सिर के ऊपर आने से ताल्लुक रखता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि बारह बजे सिर के ऊपर सूरज आ जाता है और हमारी परछाई नहीं बनती। लेकिन यह धारणा गलत है। कर्क रेखा से भूमध्य रेखा के बीच और भूमध्य रेखा से मकर रेखा के बीच आने वाले स्थानों में ‘शून्य परछार्इं दिवस’ आता है। दरअसल, वह क्षण दिन भर के लिए नहीं, बल्कि कुछ ही पलों के लिए दोपहर के बारह बजे के आसपास होता है। इस समय दुनिया के तमाम वैज्ञानिक, जिज्ञासु विद्यार्थी, तर्कशील लोग कई अनोखे प्रयोग करते हैं। वे इस खास पल में खड़े होकर अपनी परछार्इं को ढूंढ़ते हैं। गिलास को उल्टा रख कर देखते हैं कि उसकी परछार्इं किस तरफ आ रही है। कई तरह के रोचक प्रयोग इस दौरान किए जाते हैं।
हम अगर इस दिवस को विज्ञान के चश्मे से समझें तो इस खगोलीय घटना को यादगार पलों में बदल सकते हैं। दरअसल, सूर्य के उत्तरायण और दक्षिणायण होने के दौरान 23.5 अंश दक्षिण पर स्थित मकर रेखा से 23.5 अंश उत्तर की कर्क रेखा की ओर सूर्य जैसे-जैसे दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे दक्षिण से उत्तर की ओर गरमी की तपन दक्षिणी गोलार्ध में कम होती जाती है और उत्तरी गोलार्ध में बढ़ती जाती है। सूर्य की किरणें पृथ्वी पर जहां-जहां सीधी पड़ती जाती हैं, वहां उन खास स्थानों पर ठीक दोपहर में शून्य परछार्इं पल निर्मित होता जाता है। ठीक इसी प्रकार उत्तर से दक्षिण की ओर सूर्य वापस आते समय ठीक मध्यान्ह में उसी अक्षांश पर फिर से शून्य परछाई बनाता है। यानी कर्क रेखा से मकर रेखा के बीच दक्षिणायण होते सूर्य से यह दुर्लभ खगोलीय घटना होते दुबारा देख सकते हैं। कन्याकुमारी से कर्क रेखा तक मध्य भारत के तमाम स्थानों में अप्रैल से जून तक और वापसी में जून से अगस्त तक किसी खास दिन वास्तविक मध्यान्ह में इस खगोलीय घटना को हर वर्ष दो बार देखा जा सकता है।
भारत में सूर्य की इस गति को एक खास नाम दिया गया है। उत्तर की ओर से सूर्य की यात्रा को उत्तरायण कहा जाता है और दक्षिण की ओर से यात्रा को दक्षिणायण। परछार्इं गायब होने के पीछे कोई जादू नहीं है, बल्कि यह हर साल होता है। यह धरती की परिभ्रमण गति की सामान्य प्रक्रिया है। धरती सूर्य का चक्कर लगाने के साथ अपनी जगह पर भी घूमती है। वह अपने अक्षांश में 23.5 डिग्री झुकी हुई है, जिस कारण सूर्य का प्रकाश धरती पर सदा एक समान नहीं पड़ता और दिन-रात की अवधि में अंतर आता है। आपकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार इक्कीस जून की तारीख बदल जाती है। इस दिन दोपहर में कर्क रेखा सूर्य पर होता है, जिस कारण हमारी छाया भी वहां पर साल की सबसे छोटी होती हैं। जब सूर्य भूमध्य रेखा से कर्क रेखा की ओर उत्तरायण में होता है तो उत्तरी गोलार्ध में सूर्य का प्रकाश अधिक और दक्षिणी गोलार्ध में कम पड़ता है। जिस कारण उत्तरी गोलार्ध में गरमी होती है, जबकि दक्षिणी गोलार्ध में ठीक इसी समय सर्दी। ठीक यही कारण है कि अंटार्कटिका अभियान पर नवंबर-दिसंबर में जाते हैं, क्योंकि तब दक्षिणी गोलार्ध में गरमी का मौसम होता है। इसके बाद इक्कीस सितंबर के आसपास दिन और रात की अवधि बराबर हो जाती है।
धीरे-धीरे दिन की अवधि रात के मुकाबले बड़ी होने लगती है। यह प्रक्रिया इक्कीस दिसंबर तक जारी रहती है। हालांकि आपकी भौगोलिक स्थिति के अनुसार यह तारीख बदल जाती है। इस दिन उत्तरी गोलार्ध में रात वर्ष की सबसे लंबी होती है, जबकि दिन सबसे छोटा होता है। धरती पर साढ़े तेईस डिग्री उत्तर और साढ़े तेईस डिग्री दक्षिण अक्षांशों के बीच साल में ऐसे दो दिन आते हैं जब हमारी परछार्इं एक पल के लिए शून्य हो जाती है। यह घटना कर्क रेखा से भूमध्य रेखा पर आने वाले भूभाग में ही होती है। इक्कीस जून को जब सूर्य ठीक कर्क रेखा के ऊपर होता है, तब वहां दोपहर को हमारी परछार्इं शून्य होती है। जबकि उसके उत्तर में स्थित सभी स्थानों के लिए यह दिन सबसे छोटी परछार्इं वाला दिन होता है। कर्क रेखा के उत्तर और मकर रेखा के दक्षिण में शून्य परछार्इं दिवस नहीं होते। यह बात स्थिर रूप से सीधी खड़ी रहने वाली वस्तु पर ही लागू होती है। यह केवल कहने-सुनने की नहीं, बल्कि आजमाने की भी बात है