Thursday, November 21, 2024
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जानिये आखिर RSS ने 52 सालों तक राष्ट्रध्वज को क्यों नहीं फहराया ?

SI News Today

Know why RSS has not hoisted the national flag for 52 years?

         

आपने हमेशा देखा और सुना होगा कि राष्ट्रवाद की सबसे ज्यादा बातें राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ही करते हैं। क्या आप इस बात से अवगत हैं कि स्वयं को राष्ट्रवादी बोलने वाला यह संघ तिरंगा व भारतीय संविधान का विरोधी भी था। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि इस संगठन को देश की लोकतांत्रिक विचारधारा के साथ जोड़ा जाए, लेकिन इस बात को तो संघ कुछ और ही समझता है। दरअसल राष्ट्रीय परेड में शामिल होने को संघ अपनी सफलता मानता है। क्योंकि  संघ के मुख्यालय पर राष्ट्रध्वज पहली बार 15 अगस्त 1947 को और उसके बाद 26 जनवरी 1950 को ही फहराया गया था। जिसके पश्चात RSS के मुख्यालय पर राष्ट्रध्वज सन् 2002 में नजर आया। तो अब सवाल ये उठता है कि 52 सालों तक संघ ने राष्ट्रध्वज को क्यों नही फहराया। और ऐसा क्या हुआ जो संघ ने इसे संघ के मुख्यालय, स्मृति भवन व गुरु गोवलकर स्मृति-स्थल पूरे 52 सालों के बाद तिरंगे को फहराया। देशकाल में स्थिति बदलती है, लेकिन संघ के इस परिवर्तन के मायने क्या हैं? बीजेपी के सत्ता में काबिज होने के बाद यह कदम वैचारिक है या राजनीतिक? क्या इस परिवर्तन का अर्थ सत्ता पर काबिज रहने का प्रयास है या कुछ और? आइये जानते हैं इन्हीं सवालों से जुड़े जवाब को…

आपको बता दे कि आरएसएस का तिरंगे से इंकार व इकरार का बड़ा ही दिलचस्प नाता रहा है। दरअसल RSS खुद को वैचारिक संगठन और सत्ता की राजनीति को ‘गंदा नाला’ मानता रहा है। इस कारण स्वयंसेवक राजनीति से दूर ही रहे हैं। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में RSS खुलकर इस गंदे नाले में नहाया है। जिससे तय है कि जिस संविधान में उसकी राष्ट्रवादी मानसिकता के कारण आस्था नहीं, उसे भी परोक्ष रूप से थोड़ा-बहुत मानना जरूरी है। 1950 के बाद से संघ ने कभी भी नागपुर स्थित अपने मुख्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया। उन्होंने वहां पर सिर्फ भगवा ध्वज ही फहराया। फिर चाहे मौका स्वतंत्रता दिवस का रहा हो या फिर गणतंत्र दिवस का। आधी सदी से ज्यादा बीत जाने के बाद सन 2002 में केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के बाद पहली बार नागपुर स्थित संघ मुख्यालय पर तिरंगा फहराना शुरु किया गया था, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने फहरवाया था।

शुरुआत से ही आरएसएस का भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रतीकों, जैसे राष्ट्रीय ध्वज और संविधान से दूरी बनाए रखने का इतिहास रहा है। ‘हिंदुत्व’ शब्द को गढ़ने वाले सावरकर ने अपनी बात के पक्ष में दो तर्क रखे थे जिसमें पहला तर्क ये था कि भारतीय संघ या फिर ‘तथाकथित’ संविधान सभा अंग्रेजों द्वारा गठित की गई थी और इसका चुनाव देशवासियों ने राष्ट्रीय स्तर के जनमत संग्रह के माध्यम से नहीं किया था। और इसका एक और कारण यह भी था कि भारत संघ का जिक्र उन्हें ‘भारत की एकता के टूटने’ की याद दिलाता था। कौन इसे सही और राष्ट्रवादी दृष्टिकोण मानेगा? यह सिर्फ एक जल्दबाजी में लिया गया राजनीतिक समाधान है। हमारा देश समृद्ध विरासत से भरपूर प्राचीन और महान देश है। क्या तब भी हमारे पास अपना एक झंडा तक नहीं है? बेशक हमारे पास है। तो फिर यह दिवालियापन क्यों?’ साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि मनु संहिता के कानून स्पार्टा के लाईकुर्गूस या पर्शिया के सोलोन से काफी पहले ही लिखे गए थे। आज की तारीख तक भी मनुसमृति में लिखे गए कानून दुनिया भर की प्रशंसा पाते हैं ओर सहज रूप से सर्वमान्य हैं लेकिन हमारे संविधान के जानकारों की नजर में इनकी कोई अहमियत ही नहीं है।’

हालांकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। और उस पूरे वर्ष में गोलवलकर सरकार से मिन्नते कर रहें थे ताकि संघ पर से प्रतिबंध को हटा दिया जाए। आरएसएस से प्रतिबंध हटाने के बदले सरदार पटेल ने जो शर्त रखीं थीं उनमें राष्ट्रीय ध्वज को ‘‘स्पष्ट स्वीकृति’’ देने की शर्त भी थी और संघ पर लगे प्रतिबंध को हटवाने की आंड़ में गोलवलकर ने स्वयं आरएसएस की ओर से राष्ट्रीय ध्वज और संविधान को स्वीकार करने की सहमति दी थी। लेकिन इसके सिर्फ एक सप्ताह बाद ही, 29 जुलाई को हिंदू दक्षिणपंथ के प्रमुख आध्यात्मिक चेहरे विनायक दामोदर सावरकर, जिनका जन्मदिवस नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से लगातार मनाया जा रहा है, उनका कहना था कि ‘भारतीय संघ द्वारा अपनाये गए नए ध्वज में मौजूद अच्छाईयों, जो कम आपत्तिजनक हैं, इसको कभी भी हिंदुस्तान के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में मान्यता नहीं मिलेगी।’ अपनी किताब ‘विचार नवनीत’ जिसे अंग्रेजी में ‘बंच ऑफ थाट्स’ के नाम से है,  उसमें गोलवलकर का कहना है कि ‘हमारे नेताओं ने हमारे लिये एक नया ध्वज चुनने का फैसला किया है। उन्होंने ऐसा इसलिए किया है क्योंकि यह हमारी समृद्ध विरासत को अस्वीकृत करने और बिना सोचे-समझे दूसरों की नकल करने का एक स्पष्ट उदाहरण है। संघ का मानना है कि तिरंगा देश का शासकीय और भगवा सांस्कृतिक ध्वज है।

वहीं साल 2001 में तीन युवकों को RSS मुख्यालय में झंडा फहराने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। दरअसल 26 जनवरी 2001 को नागपुर मुख्यालय पर झंडा फहराने पहुंचे तीन युवकों को आरएसएस ने जेल भेजवा दिया था हालांकि बाद में उन्हें बरी कर दिया गया था। वहीं एक तरफ साल 2000 के 22 अगस्त को जब बीआर आंबेडकर के प्रपौत्र प्रकाश आंबेडकर ने संसद में यह तर्क दिया कि आरएसएस ने 1949 में सरकार के साथ एक समझौते पर दस्तखत किए थे कि उनके मुख्यालय पर तिरंगा फहराया जायेगा। और इसके आगे उन्होंने कहा कि गृह मंत्रालय के 26 नवंबर 1949 के प्रस्ताव के मुताबिक, ‘RSS और सरदार वल्लभ भाई पटेल के बीच एक समझौता हुआ था जिसमें साफ-साफ कहा गया था कि आरएसएस 26 जनवरी 1950 को नागपुर के अपने मुख्यालय में राष्ट्रध्वज फहराएगा। तो वहीं दूसरी तरफ संघ के नेताओं ने चुनौती दी कि उस समझौते को पेश किया जाये।

गौरतलब है कि इतिहासकार रामचंद्र गुहा के अनुसार 1930-1940 के दशक में RSS का शायद ही कोई कार्यकर्ता राष्ट्रध्वज को सलामी देता नजर आता था। उनकी निष्ठा तो केवल अपने संप्रदाय से जुड़ी थी ना कि पूरे राष्ट्र से। ये लोग अपने भगवा ध्वज को तिरंगे से कहीं ऊपर फहराते थे और महात्मा गांधी की हत्या के तुरंत बाद बहुत सी खबरें आईं कि आरएसएस के कार्यकर्ता तिरंगे को अपने पैरों से कुचल रहे हैं। और इससे प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बड़े आहत हुए।24 फरवरी 1948 के अपने भाषण में नेहरू ने अफसोस भरे स्वर में कहा, ‘कुछ जगहों पर आरएसएस के कार्यकर्ता राष्ट्रीय झंडे का अपमान कर रहे हैं। वो अच्छी तरह जानते हैं कि राष्ट्रध्वज का अपमान करके वे अपने को गद्दार साबित कर रहे हैं। अच्छा है जो बीजेपी हर केंद्रीय विश्वविद्यालय में तिरंगे को फहराते देखना चाहती है और देश इस बात पर खुश हो रहा है जैसा कि उसे होना भी चाहिए। और यह उम्मीद करना चाहिए कि संघ भी बीजेपी के इस फैसले को पूरे मन से अपनाएगा। नागपुर के स्मृति-भवन में चिरनिद्रा में लीन संघ के प्रथम पुरुष प्रसन्न होंगे कि जो काम सरदार पटेल ना कर सके वह काम स्मृति ईरानी ने कर दिखाया।

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