Congress has given such a sentence to the family of his honest leader that the family is run by the rickshaw.
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खबर थोड़ी पुरानी है मगर आज कल के नेताओं के लिए शायद इससे अच्छा सबक नहीं हो सकता। विधायक और सांसद तो दूर पार्षद बनते ही व्यक्ति के चाल ढाल और जीवनशैली में खासा परिवर्तन आ जाता है। गाडी, बंगला, नौकर चाकर एक नेता के लिये कोई बडी बात नहीं मानी जाती। एक बार विधायक और सांसद बनने पर व्यक्ति अपनी नहीं अपनी कई पीढ़ियों के सुख सुविधाओं का इंतजाम कर लेता है। अभी हाल ही में कर्नाटक के खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री बीजेड जमीर अहमद खान ने यह कहकर विवाद पैदा कर दिया था कि उन्हें सरकारी इस्तेमाल के लिए टोयोटा की इन्नोवा के बजाय फॉर्च्युनर चाहिए क्योंकि वह बचपन से ही बड़ी कारों में चलने के आदी रहे हैं।
हम इस बात को इसलिए भी उठा रहे हैं क्यूंकि आज हम जिस व्यक्ति की बात करने जा रहे है उनके पिताजी एक-दो बार नहीं बल्कि तीन बार विधायक रह चुके हैं। लखनऊ ने डालीगंज में इस सियासी परिवार की भाग्य की विडम्बना तो देखिये इस विधायक पुत्र की स्थिति इतनी ख़राब है कि दो वक़्त की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। परिवार का पालन पोषण करने के लिए विधायक पुत्र विजय कुमार को रिक्शा चलाना पड़ रहा है।
विजय के पिता बंसतलाल कांग्रेस के टिकट पर 1957 में पहली बार मोहनलालगंज और महोना सीट से विधायक रहे थे।डालीगंज में उनका दो मंजिला मकान ही किसी समय राजीनीति का मुख्य अड्डा हुआ करता था। लेकिन विधायक रहे बसंतलाल के निधन के बाद आज उनका दो मंजिला मकान जर्जर स्थिति में पहुँच गया है। टूटा हुआ दरवाजा और कभी भी ढह जाने वाली दीवारें इस इमारत इस बात की साफ़ गवाही देती हैं कि विधायक ने कितनी ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन किया होगा और अपने या अपने परिवार के लिए कभी सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग नहीं किया होगा। उनके पुत्र और उनके परिवार की आज कि ये हालत इसके सबूत है। कई सालों पहले उनके इस मकान की छत ढह गयी थी। परिवार के पास इतनी भी पैसे नहीं थे कि कभी उस पर पक्की छत डाल सके इसलिये उसे टीन से ढका गया था, पिछले साल की आंधी में उड़ गया था और अब इसे पन्नी से ढँक रखा है।
स्वर्गीय विधायक बंसतलाल के पुत्र जिन्हें किसी विधानसभा की सीट पर होना चाहिये था आज वह रिक्शा की सीट पर बैठकर दो वक़्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए पूरा दिन भर रिक्शा चलाते है। अब उनकी ढलती उम्र और बिमारी के कारण उनका रिक्शा चलाना भी उनके लिये दूभर हो गया है। विजय के दो पुत्र हैं जिनमे से एक बेटा ऑटो चलाता है और और दूसरा बेटा इलेक्ट्रीशीयन का काम करता है। स्वर्गीय विधायक के पोते अपनी गरीबी का जिम्मेवार अपने दादा बंसतलाल की ईमानदारी को दोष देते हुए कहते हैं कि आज वे लोग भी सफेद कुर्ता पायजामा पहन कर कहीं हाई सोसायटी में किसी बंगले में आलीशान जिंदगी जी रहे होते।
विजय ने इंदिरा गांधी के द्वारा अपने पिता को दिये गये ताम्रपत्र को संभाल कर रखा हुआ है जिसे दिखाकर अपनी बिमारी के चलते अस्पतालों में थोड़ा बहुत सहायता मिल जाती है। विजय की पत्नी अपनी पुरानी यादों में से एक बात बताती हैं कि जब उनकी शादी हुयी थी तब पूर्व मुख्यमंत्री सी.बी. गुप्ता बाराती बनकर आये थे। लेकिन आज कोई भी खोज-खबर लेने नहीं आता। विजय अपनी किस्मत पर पछताते हुये कहते है कि किसी समय पूर्व मुख्यमंत्री सी.बी. गुप्ता ने उन्हें नौकरी के लिये कहा था लेकिन तब उनके पिता ने मना कर दिया था। अगर उस समय उन्होनें नौकरी कर ली होती तो उन्हें आज यह दिन नहीं देखने पडते।
किसी ईमानदार नेता की ऐसी दुर्दशा आत्मा को अंदर तक झकझोर देती है, चुनाव के बादल गरजते ही इनके दरवाजे पर कोंग्रेसी फट पड़ते हैं और उनसे यह कहकर वोट मांगने आते है कि आपके पिता कांग्रेस के विधायक थे इसलिये इन चुनावों में आप पार्टी को ही वोट देना। मगर जैसे बरसात के बाद मेंढक गायब हो जाते हैं वैसे ये सभी गायब हो जाते हैं। अगर समय रहते इन्ही की कांग्रेस पार्टी ने इस ईमानदार विधायक-पुत्र या पोतों को स्थानीय राजनीती में जगह दी होती तो शायद आज वे लोग हालात में जीने को मजबूर न होते।
विजय को आज यह दिन अपने पिता की आज के युग में ऐसा ईमानदार राजनेता शायद ही देखने को मिले और हम कहते हैं कि गोडसे ने गाँधी की हत्या कर दी। असल में हम सब मिलकर ही ऐसे न जाने कितने गांधियों की रोजाना हत्या करते हैं, जो न सरकारी पद का दुरुपयोग करते हैं न अपने बच्चो के लिए उसकी मशीनरी का। लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल, अटल बिहारी बाजपेयी, अब्दुल कलाम हम ऐसे बहुत से नेताओं और राजनितिक चेहरों को देखते और सुनते हैं मगर सीख कभी नहीं लेते। मगर सोशल मीडिया पर आकर ऐसे लोगों की दुःख भरी दास्ताँ सुनाकर अपना वोट-बैंक बनाने से अच्छा है कि उनके हालात सुधरने में अपना भी कुछ योगदान दें।