अतुल कनक
घटना छोटी है, लेकिन इतनी मामूली भी नहीं कि उसे नजरअंदाज कर दिया जाए। पिछले दिनों चीन के प्रसिद्ध जानजियांग रिसोर्ट में एक चार साल का बच्चा अपनी मां के साथ स्वीमिंग पूल से कुछ दूरी पर खेल रहा था। मां अपने मोबाइल पर व्यस्त हो गई और खेलते-खलते वह छोटा बच्चा स्वीमिंग पूल के पानी में उतर गया और डूब गया। बहुत देर बाद जब मां को बेटे की सुध आई, तब तक बेटा जीवन की जंग हार चुका था। यह घटना स्मार्टफोन के प्रति बढ़ती उस वहशियाना आसक्ति को निरूपित करती है, जिसके कारण मनुष्य अपने परिवेश से लगातार कटता जा रहा है और कई अवसरों पर ऐसी लापरवाही करता है कि किसी की जान पर बन आती है। कुछ समय पहले मेरे एक परिचित का बेटा जयपुर में नौकरी करता था। उसका घर रेल की पटरियों के पास था। कई बार कुछ युवा कान में लगे हेडफोन में अक्सर आवाज इतनी तेज कर लेते हैं कि उन्हें बाहर की कोई ध्वनि नहीं सुनाई देती। एक दिन वह इसी स्थिति में पटरी पार करने लगा। उसे पता तक नहीं चला और तेज गति से दौड़ती ट्रेन ने उसे रौंद डाला।
दरअसल, हम लोगों ने आभासी यानी वर्चुअल दुनिया के आकर्षण में खुद को इतना उलझा लिया है कि वास्तविक जीवन की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। परिवारों में संवाद लगभग बंद हो गए हैं। पहले ही परिवार एकाकी थे, फिर रोजगार की भाग-दौड़ खासकर बड़े शहरों के निवासियों को बहुत कम फुरसत देती है। फुरसत के दौरान भी अगर पति-पत्नी को साथ-साथ बैठने का मौका मिलता है तो दोनों अपने स्मार्टफोन निकाल कर उसमें व्यस्त हो जाते हैं। किशोर होती पीढ़ी का तो और भी बुरा हाल है। वह आभासी दुनिया में निरंतर संवाद कायम रखने की कोशिश में उन जरूरतों को भी अनदेखा कर देती है जो इस उम्र में व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए आवश्यक हैं।मोबाइल रखने का सलीका कहता है कि अगर आप किसी से मिलने गए हैं या कोई आपके पास मिलने आया हो तो आप किसी का फोन आने पर बहुत संक्षेप में बात करें या कह दें कि आप व्यस्त हैं, फिर बात कर लेंगे। लेकिन होता यह है कि आगंतुक मुंह ताकता रहता है और लोग अपने मोबाइल फोन पर बात करते रहते हैं। ऐसे वक्त पर केवल रिश्ते को बचाने की मजबूरी ही व्यक्ति को चुप रखती है, वरना बुरा तो सबको लगता होगा।
अपनों से संवाद का मोह हमेशा मन को लुभाता है। जिन लोगों का जन्म साठ के दशक के अंत या सत्तर के दशक में हुआ है, उन्हें याद होगा कि किस तरह से शहर के बाहर कोई जरूरी सूचना देने के लिए ट्रंक कॉल बुक करवाने के बाद घंटों बैठ कर अपनी लाइन मिलने का इंतजार करना पड़ता था। फिर एसटीडी टेलीफोन बूथ के माध्यम से दूरस्थ संवाद कुछ आसान हुआ। उस दौर तक परस्पर पत्र लिखने का अपना महत्त्व हुआ करता था। डाकिये के इंतजार को लेकर तो कई गीत और कविताएं लिखी गई हैं। कोई बहुत ही जरूरी समाचार तुरंत भेजना हो तो टेलीग्राम एक विकल्प हुआ करता था। हालांकि एक दौर में टेलीग्राम आने का मतलब किसी बुरी सूचना का आना समझा जाता था। ऐसे कितने ही नाटक और कहानियां लिखी गर्इं, जिनमें बताया गया कि कैसे किसी गांव में एक तार आने पर लोगों ने कोई बुरी खबर मान कर तार पढ़े बिना ही रोना-पीटना शुरू कर दिया और बाद में जब किसी समझदार ने उस तार को पढ़ा तो कोई शुभ सूचना निकली। तकनीकी विशेषज्ञों के अध्ययनों के निष्कर्ष बताते हैं कि मोबाइल के कारण लोगों में न केवल चिड़चिड़ापन, उच्च रक्तचाप, अनिद्रा, अवसाद जैसे रोग बढ़ रहे है, बल्कि अंतरंग रिश्तों में भी दरारें आ रही हैं। कई अदालतों में इस आशय के दावे दायर हो चुके हैं, जिनमें पति या पत्नी ने इस आधार पर तलाक मांगा कि जीवनसाथी उनकी जरूरतों से ज्यादा महत्त्व अपने मोबाइल और इंटरनेट को देता है। मोबाइल के अधिक संपर्क में रहने वाले बच्चों में एकाग्रता का अभाव और स्मृतिलोप जैसी बीमारियां देखने को मिल रही हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि संवाद की प्रचुरता रिश्तों के माधुर्य को नुकसान पहुंचा रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि स्मार्ट फोन के बढ़ते चलन ने हमारी दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव का सूत्रपात किया है। कैमरे और घड़ी के विकल्प से लेकर संदेशों के लेन-देन तक, जिनमें इ-मेल और अनेक सोशल मीडिया अहम हैं, स्मार्टफोन के माध्यम से सहज संभव हुए हैं। मोबाइल के अत्यधिक इस्तेमाल के नुकसानों में एक यह भी है कि सस्ती इंटरनेट दरों और आसान उपलब्धता ने कमउम्र के बच्चों को भी उन अश्लील वेबसाइटों तक पहुंचा दिया है, जो उन्हें कंटीली राह पर धकेल सकती हैं। क्या हम स्मार्टफोन की जरूरत और लत के अंतर को समझ सकेंगे?