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दुनिया मेरे आगे- बदलाव की इबारत

जो हम कर सकते हैं, उसके लिए क्यों किसी का इंतजार करते हैं? यह सवाल हम सब खुद से कभी पूछ नहीं पाते हैं या फिर पूछना ही नहीं चाहते, क्योंकि हम खुद कठघरे में हैं। हमारी एक आदत हो गई है कि हम दूसरों पर मजाक के साथ टीका-टिप्पणी करें और जब खुद उन्हीं हालात से गुजरना पड़े तो बौखला जाएं। यह जीवन का दोहरा मानदंड है। यों कुछ लोग इसी मानदंड को गर्व के साथ जीते हैं और इसे ही ओढ़ते-बिछाते हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि दुनिया क्या कहेगी। यह आज का नहीं, परंपरागत स्वाभाविक दोष है। मुंबई जैसे महानगर और देश की आर्थिक राजधानी को दुनिया साफ और सुरक्षित देखना चाहती है। ‘ग्लैमर वर्ल्ड’ की भी इसकी पहचान बन चुकी है। सिनेमा-टीवी का अरबों का कारोबार यहां हो रहा है। देश का ‘यंगिस्तान’ ही नहीं, विदेश की धरती से भी कलाकार और कारोबारी अपना भाग्य आजमाने आ रहे हैं। पर्यटकों की हमेशा भीड़ लगी रहती है। लेकिन शहर को जिस अंदाज में रहना चाहिए था, उस कसौटी पर इसमें अधूरापन है। कुछ सख्ती के बावजूद लोग सड़कों को गंदा करने में पीछे नहीं रहते। गुटका-पान खाकर थूकना मानो उनका जन्मसिद्ध अधिकार बन गया है। जगह-जगह कचरे के ढेर, प्लास्टिक की बिखरी थैलियां, नदी-नालों का शौचालयों में तब्दील होना, पहाड़ियों को तोड़ कर इमारतें खड़ी करना, खाड़ी की गीली-धंसी जमीनों पर अवैध कब्जा, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई आदि ने जाहिर कर दिया है कि इस शहर को शंघाई बनाने का सपना शायद ही कभी पूरा हो सके। स्वच्छता के मामले में तो यह नवी मुंबई और ठाणे से भी पिछड़ता जा रहा है।

धनाढ्य, पढ़े-लिखे, आधुनिक और स्टाइलिश लोगों को इस बात की चिंता नहीं है कि कैसे इस शहर को रहने लायक बनाया जाए। उन्हें ज्यादा चिंता इस चीज की है कि कैसे अपनी जिंदगी को बेहतर बनाया जाए, गरमी की छुट्टियों में किस देश के लिए उड़ान भरी जाए, जन्मदिन की पार्टी किस पांच सितारा होटल में की जाए, महंगे टिकट के बावजूद कनाडाई गायक जस्टिन बीवर के शो का मजा कैसे लिया जाए! इसमें वे अपनी हैसियत को बढ़-चढ़ कर दिखाने की कोशिश करते हैं। बीवर जैसों के शो में नहीं जाने का मतलब है अपने को पिछड़ा साबित करना।लेकिन इस शहर में वैसे लोगों की संख्या भी काफी है जो समाज-हित को सामने रख कर जी रहे हैं। लेकिन वे इसका दिखावा नहीं करते। मानसून आने वाला है। इसकी आहट कभी आह्लादित करती थी, लेकिन जुलाई, 2005 की भारी बारिश से हुई तबाही ने मुंबईवासियों के चेहरे पर डर का स्थायी भाव चिपका दिया है। भले उसकी पुनरावृत्ति न हुई हो, मगर उस समय के जो मारक अनुभव हैं, वे भुलाए नहीं जा सकते। उन त्रासद हालात में वही लोग मदद के लिए खड़े हुए थे जो आज भी मुंबई को बचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। वे ही नदियों के पुनर्जीवन और साफ-सफाई को लेकर चिंतित हैं।

मुंबई के पश्चिमी उपनगरों से चार नदियां गुजरती हैं- मीठी, ओशिवारा, पोइसर और दहिसर। ये सब कभी मुंबई को स्वच्छ जल उपलब्ध कराती थीं। लेकिन सरकार और नगर निगम के मेलजोल से भूखंडों पर कब्जा जमाने की साजिश और बिल्डरों की कमाई की नीति ने इन नदियों को कहीं का नहीं छोड़ा। इसके किनारे धीरे-धीरे सिकुड़ते चले गए। आज ये नदियां गंदे नालों में तब्दील हो गई हैं। घरों से निकलने वाले कचरे इन्हीं में फेंके जा रहे हैं। प्रशासन इनकी सफाई पर हर साल लाखों-करोड़ों रुपए खर्च कर रहा है, लेकिन स्थिति में खास परिवर्तन नहीं दिखाई दे रहा है। इसकी सड़ांध से हमेशा बीमारियों का खतरा मंडराता रहता है। इसका खमियाजा 2005 की भारी बारिश में लोगों को भुगतना पड़ा था। तब सरकार और नगर निगम को सुध आई थी कि इन नदियों की रक्षा की जानी चाहिए। लेकिन संकट के समय आया यह विचार समय बीतने के धुंधला गया।इन नदियों की हालत को देखते हुए स्थानीय लोगों ने प्रशासन के भरोसे बैठने के बजाय स्वयंसेवी संगठनों की मदद से उनकी सफाई, रख-रखाव और अतिक्रमण से बचाने का काम शुरू कर दिया है। विभिन्न स्कूलों के सैकड़ों छात्र-छात्राओं समेत हजारों लोग इस अभियान में हिस्सा ले रहे हैं। स्थानीय जागरूक लोग सभी से अपील कर रहे हैं कि कोई भी कचरे को उस नाले यानी नदी में न फेंके, मल-मूत्र का विसर्जन न करें। यह प्रतिज्ञा कराई जा रही है कि नदी-तालों को न केवल कचरा-मुक्त बनाना है, बल्कि प्लास्टिक की थैलियों से भी बचाना है। इस पहल का यह असर हुआ कि स्थानीय लोगों के साथ अब सांसद, विधायक और निगम पार्षद भी आ रहे हैं। नगर निगम के अधिकारी भी इस मुहिम की तारीफ कर रहे हैं। वे मिल कर नदी को बचाने पर विचार कर रहे हैं। यह जन-भागीदारी बदलाव की इबारत लिख रही है।

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