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पीरियड्स वाला पर्चा 2 : और आख़िर वो दिन आ ही गया

Source :Viwe Source

पीरियड्स वाला पर्चा 1: उस दिन नहीं पता था कि ये 4 दिन तक चलता है

रीवा सिंह – मेरी सहेलियों में लगभग सभी पीरियड्स का अनुभव कर चुकी थीं, मैं अभी बची थी। ‘बची’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए कर रही हूं क्योंकि उस वक्त दिमाग में ये चलता था कि एक बार ये सिलसिला शुरू हुआ तो 40-45 के बाद ही थमेगा इसलिए जबतक हो सके बची रहो। पर इससे बचने जैसा कुछ कहां था! पीरियड्स पर किसका ज़ोर था! दिमाग में माइटॉसिस और मियॉसिस वाला लॉजिक चलता तो लगता कि पीरियड्स शुरू होने के बाद हाइट भी ठीक से नहीं बढ़ेगी। बाद में देखा कि हाइट तो कॉलेज पहुंचने तक थोड़ी-बहुत बढ़ती रही।
आठवीं क्लास में ही थी, दिसम्बर का महीना था। तारीख़ याद नहीं पर दिन शनिवार था ये इसलिए याद है क्योंकि उस दिन मैंने हाउस टी-शर्ट के साथ सफ़ेद स्कर्ट पहनी थी। स्कूल से अभी घर आई थी, कुछ अजीब-सा लग रहा था। समझ में कुछ नहीं आ रहा था पर चिढ़ मच रही थी। मैं वॉशरूम गयी तो कोमोड में लाल रंग दिखा। दिमाग सुन्न हो गया। लो रीवा, अब तुम्हारा भी विकेट गिरा। अजीब ये था कि मुझे दर्द नहीं हुआ इसलिए मैं ये सोचने लगी कि पता नहीं कबसे हो रहा होगा। फिर मैंने तुरंत स्कर्ट चेक की, स्कर्ट साफ़ थी, कोई दाग नहीं था। शर्म आती है ये सोचकर कि उस वक़्त मैंने पीरियड्स के आने से ज़्यादा स्कर्ट के दाग के बारे में सोचा था। मैंने मम्मी को बताया, मम्मी किनारे ले गयीं और सैनिटरी नैपकिन पकड़ा दिया ये समझाते हुए कि इस्तेमाल कैसे करना है।
मैंने उस नैपकिन का इस्तेमाल तो कर लिया पर बहुत असहज थी। एक अजीब-सी बेचैनी, कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। नैपकिन के साथ जीने की आदत नहीं थी इसलिए मन कर रहा था कब निकालकर फेंक दूं। दर्द नहीं हो रहा था। मुझे याद है उन दिनों पीरियड्स को लेकर मेरे मन में ये बात सबसे बुरी तरह बैठ गयी थी कि किसी को पता नहीं चलना चाहिए। मैं ठीक नहीं थी, डैडी ने नोटिस किया। उन्होंने पूछा तो मैं कुछ ठीक से बता नहीं पाई। रात भर बैठी रह गयी क्योंकि अब दर्द होने लगा था और सोया नहीं जा रहा था। डैडी से न बता पाने पर बहुत बुरा लगा, लगा कि ऐसे ही डैडी से दूरी हो जाएगी क्या! डैडी से दूर होकर बड़ा होना बहुत बुरा है।
वो वीकेंड था और उसके बाद से सर्दी की छुट्टियां शुरू थीं। उस बार मुझे पूरे 12 दिन तक पीरियड्स चले। मम्मी कई बार पूछतीं कि अब खत्म हो गया? मैं कहती – नहीं। मैं इसे लेकर इतनी संकुचित होती जा रही थी कि मम्मी से भी डिसकस करना ठीक नहीं लगता था। पीरियड्स के 7 दिन के बाद मम्मी घबरा गयीं, वो डॉक्टर को दिखाने की ज़िद्द करने लगीं पर मैं अपनी ज़िद्द पर अड़ी थी कि नहीं जाऊंगी।
उसके बाद सब नॉर्मल हो गया, पीरियड्स भी नियमित रूप से आने लगे पर दर्द बेहिसाब बढ़ता गया। चिल्लाने का और मर जाने का मन होता पर चेहरा एकदम शांत दिखता क्योंकि चेहरे को शोर मचाने की इजाज़त नहीं थी। क्लास में अब इतना छुपने-छुपाने वाला माहौल नहीं था। साफ़ शब्दों में कभी इसपर बहस नहीं हुई पर सब ‘समझदार’ हो चले थे।

अब मैं दसवीं में थी, पीरियड्स के दर्द से उल्टियां करती थी और उतनी उल्टियों के बाद हालत ऐसी हो जाती थी कि दीवार पकड़कर वॉशरूम जाना पड़ता था। ऐसा हर महीने होता और इस पूरी प्रक्रिया में मैं हर बार उस सीमा पर पहुंच जाती जब शरीर में न पानी बचता और न चेतना और मैं सो जाती। सोचकर घबरा जाती थी कि प्रेग्नेंट महिलाओं को डिलीवरी के वक़्त इससे भी अधिक दर्द होता होगा क्या! नहीं, इससे अधिक दर्द की गुंजाइश ही कहां है।
पीरियड्स के दिन मेरे लिए शामत थे। तारीख़ में कोई गलती न होती, एक दिन भी नहीं.. पर दर्द से रूह कांप जाती थी। कई बार डॉक्टर को दिखाया। जिन डॉक्टर्स के यहां डैडी लेकर जाते वो उनके दोस्त ही होते। मैं डैडी के मौजूद होने की वजह से सांकेतिक तरीके से ही अपनी समस्या बता पाती। पता नहीं उन्हें मेरी बात कितनी समझ आती थी पर उनकी दवा से आराम मिलता था। हां, वो आराम अगले महीने तक असरदार नहीं होता। मतलब वो कोई रामबाण इलाज नहीं था और मैं हर बार दवा नहीं खाना चाहती थी। मुझे इस बात का एहसास था कि दवा नहीं खानी चाहिए क्योंकि शरीर को इसकी आदत पड़ गयी तो ये भी बेअसर हो जाएगा और साइडइफ़ेक्ट्स अलग से।

ग्यारहवीं की परीक्षा देकर मैं घर में पड़ी हुई एक दिन इसी पीरियड का मातम मना रही थी। मम्मी कहीं गयी थीं और पैरामिलिट्री फ़ोर्स में कार्यरत डैडी वैसे भी बहुत कम ही वक़्त घर में बिताते हैं। मेरी हालत देखकर भाई घबरा गया। तब वो पांचवीं में पढ़ता था। मैं लगभग बेहोश थी। अब और ताकत नहीं थी वॉशरूम तक जाकर उल्टियां करने की। उसने इमोश्नल होकर कहा – दीदी बताओ तो तुम्हें हुआ क्या है? मैं दवा लेकर आता हूं। उस वक़्त समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं। अगर वो थोड़ा और बड़ा होता तो शायद कह देती पर वो इन बातों के लिए बहुत छोटा लगा। मुझे दवा की सख़्त ज़रूरत थी, उन दिनों तक कभी मेफ़टॉल स्पास मेरे सामने नहीं पड़ा था। डॉक्टर्स पता नहीं किस चीज़ की दवाई देते थे, मुझे खाने का मन नहीं होता पर जीने के लिए एक ख़ुराक़ ले लेती। मैंने भाई से कहा – कुछ नहीं बाबू, बस मेडिकल स्टोर वाले भैया से कह देना कि दीदी को पेट में बहुत दर्द हो रहा है, वो समझ जाएंगे। मेडिकल स्टोर वाले भैया और अंकल परिचित थे इसलिए मुझे लगा कि वो समझ जाएंगे। वो दवा लेकर आया, मैं पानी के साथ निगल गयी। पूरी बायॉलजी मेरे दिमाग में घूम रही थी। पता नहीं कितना साइड इफ़ेक्ट होगा। बाबू थोड़ा बड़ा होता तो असली वजह बता देती।

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