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सातवीं क्लास में पढ़ती थी जब एक दिन मम्मी अपने पास बिठाकर बातें करते हुए न जाने क्या बताने लगीं। उन्होंने शारीरिक विकास के बारे में बताते हुए कहा, “औरतें कहीं से आती नहीं हैं, लड़कियां ही बड़ी होकर औरत बनती हैं।“ बचपन में मुझे लड़के और आदमी व लड़कियां और औरतें अलग-अलग लगते थे पर सातवीं कक्षा तक आते-आते मैं इतनी बेवकूफ़ नहीं थी इसलिए मन खीझ गया और मैंने चिल्लाते हुए कहा – मुझे पता है, ये फालतू बात क्यों बता रही हैं! फिर उन्होंने बताना शुरू किया कि बड़े होने के साथ ही लड़के-लड़कियों में बदलाव आते हैं। जैसे वो आगे बताने लगीं उनकी आवाज़ धीमी पड़ने लगी और फिर मुझे पता चला कि बड़ी होकर मां और बेटी सहेलियां हो जाती हैं और हर बात पिता से नहीं कहनी होती है। मैं परेशान हो गयी। मैं मम्मी से ज़्यादा डैडी के करीब थी, उनसे दूरी वाला कॉन्सेप्ट पसंद नहीं आया। फिर पता चला कि ब्लीडिंग होती है और इससे पता चलता है कि बड़े हो गए, और इसके बारे में पुरुषों से बात नहीं करते।
मैंने कौतूहलवश इतने सारे सवाल पूछे जिन्हें याद कर के अब हंसी आती है। “जो बड़ा होता है उसे ब्लीडिंग हो चुकी है? मतलब आपको भी? मतलब मेरी टीचर्स को भी? मतलब पड़ोस वाली रूबी दी को भी?” पुरुषों को इस बारे में नहीं बताते ये बात मेरे दिमाग में इस तरह बैठी थी कि मुझे पुरुषों को देखकर दया आने लगी कि इतनी बड़ी प्रक्रिया जिससे सभी गुज़रते हैं, उसका इन्हें पता ही नहीं है। ओह! कितने अनभिज्ञ हैं ये!
आठवीं में गयी तो क्लास की लड़कियों से इस बारे में बात होने लगी, फिर पता चला कि कौन-कौन इससे गुज़र चुका है। उस दिन पता चला कि ये ब्लीडिंग हर महीने होती है और कम से कम चार दिन तक चलती है। इससे पहले मैं यही समझती थी कि कोई लड़की बड़ी हुई तो उसे एक बार कुछ मिनट के लिए ब्लीडिंग हो गयी, बस। इसका मतलब कि वो बड़ी हो गयी। जब इस सायकल का पता चला तो लगा कि ज़िंदगी कितनी घटिया होने वाली है! मेरे लिए खून क्या महत्त्व रखता है इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि चोट चाहें जितनी भी गहरी हो, जबतक खून न निकले मैं उसे चोट नहीं मानती थी। अब हर महीने खून निकलेगा वो भी 4 दिनों तक! बाप रे! फिर ज़िंदा कैसे रहेंगे! ये कभी ठीक नहीं होगा? मम्मी ने बताया कि 40 के बाद बंद होता है। मुझे लगने लगा कि 14 वर्ष से पहले 40 ही आ जाता तो कितना अच्छा होता।
अब क्लास में किसी भी दिन अचानक ही पता चलता कि किसी लड़की को पीरियड्स शुरू हो गए और हमें ऐसा लगता जैसे एक और विकेट गिरा।
उसी क्लास में मेडिकल कैम्प के दौरान लड़कियों की अलग से काउंसिलिंग हुई। बहुत-से डॉक्टर्स के अलावा एक गाइनी (गायनोकॉलजिस्ट) भी आयी थीं जिन्होंने हमें इस बारे में बताया। टीचर्स ने हमें और दूसरी क्लासेज़ की लड़कियों को एक हॉल में बुलाकर खड़ा कर दिया था। हमें अंदाज़ा था कि इस बारे में बात होने वाली है पर आज ताज्जुब होता है ये सोचकर कि हम तो बेवकूफ़ थे पर हमारी टीचर्स ने भी इसपर खुलकर बात करना ठीक नहीं समझा। प्रिंसिपल मैम आईं तो उन्होंने बायोलॉजिकली समझाते हुए कहा कि ये कोई हौव्वा नहीं है। फीमेल बॉडी में एग होता है जिसे ओवा कहते हैं। अगर ये ओवा फ़र्टिलाइज़ न हो तो प्यूबर्टी के दौरान हर महीने हमारी बॉडी से बाहर आ जाता है और फिर नया ओवा बनता है। ये बात उनके बताने से पहले ही पता थी पर किसी ने इतनी सहजता से नहीं बताया था। आलम ये था कि डॉक्टर हमारे सामने बैठी हुई थीं पर कोई लड़की खुलकर सवाल नहीं पूछ पा रही थी। फिर प्रिंसिपल मैम ने ही कुछ लड़कियों को बुलाना शुरू किया जिनकी ऐसी समस्या के बारे में वो जानती थीं। मैं क्या पूछती, मुझे तबतक इसका अनुभव नहीं था। इस विषय पर सिर्फ़ परेशान हो जाया करती थी। क्लास में पहुंचते ही हमारे मेल क्लासमेट्स ने सवालों की झड़ियां लगा दीं – कहां गए थे तुमलोग? ऐसा क्या है जो तुम लोगों को बुलाया गया और हमें नहीं? हमें समझ ही नहीं आ रहा था कि क्या बताएं और ये भी नहीं समझ पाये कि क्यों नहीं बताना है।