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‘102 नॉट आउट’ में अमिताभ और ऋषि को सालों बाद साथ देखना सुखद: रिव्यु

निर्देशक: उमेश शुक्ला
कलाकार: अमिताभ बच्चन, ऋषि कपूर, जिमित त्रिवेदी

‘102 नॉट आउट’ को आप कई दृष्टिकोण से एक स्मार्ट फिल्म कह सकते हैं. पहला ये कि इस फिल्म में दो सशक्त कलाकार अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर 27 सालों के बाद काम कर रहे हैं. दोनों ही लगभग फिल्म के हर फ्रेम में नजर आते हैं. दोनों आपको बारी-बारी से हसाएंगे और रुलाएंगे भी और सबसे बड़ी बात निर्देशक ने जिस मुद्दे को फिल्म में टटोला है वो लगभग हर घर की कहानी है. अब जिस फिल्म में ये सब कुछ अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर एक साथ मिल कर कर रहे हों तो भला लोग उस फिल्म को देखने सिनेमाघरों में क्यों नहीं जाएंगे. लेकिन अगर महज फिल्म की मेरिट की बात की जाए तो ये फिल्म कुछ जगहों पर चूक भी जाती है. अपने नाम के ही मुताबिक ये फिल्म अपने अवधि को भी सार्थक करती है यानी कि इस फिल्म की अवधि 102 मिनट है यानि कि डेढ़ घंटे से कुछ ज्यादा और इसके पहले हाफ में आपको हंसी मजाक के सीक्वेंसेज मिलेंगे जो कि फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी है. लगभग आधे से अधिक जोक्स पर हंसी नहीं आती है. अमिताभ बच्चन का 102 साल की उम्र में कुछ ज्यादा ही सक्रिय होना भी थोड़ा अटपटा लगता है. फिल्म में ये दोनों ठेठ गुजराती बने हैं लेकिन अमिताभ बच्चन के बोलने के लहजे में गुजराती हाव-भाव कभी-कभी नजर आते हैं तो वहीं, ऋषि कपूर के हाव-भाव में ये बिलकुल गायब नजर आता है. फिल्म को देखने में मजा आता है मध्यांतर के बाद जब फिल्म इमोशंस में सराबोर हो जाती है. इसके बाद अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर मिलकर अपनी एक्टिंग क्लास दिखाते हैं.

‘102 नॉट आउट’ की कहानी भावनाओं से लबालब है
‘102 नॉट आउट’ की कहानी एक गुजराती परिवार की है जिसके सिर्फ दो सदस्य हैं – 102 साल के दत्तात्रेय वखारिया (अमिताभ बच्चन) और 75 साल के उनके बेटे बाबूलाल वखारिया (ऋषि कपूर). बाबूलाल जिंदगी से हारा हुआ इंसान है जो अपने जिंदगी के बाकी दिन महज गुजार रहा है. उसके जीवन में कोई रस नहीं है और उसे अपनी जिंदगी सिर्फ एक रास्ते पर ही चलकर जीना है. कम शब्दों में अगर उसे कोई दूसरा रास्ता मिल जाता है तो उसकी जिंदगी में एक तरह से भूचाल आ जाता है. 102 साल के उसके पिता दत्तात्रेय के जीवन का चाल चलन अपने बेटे के बिलकुल विपरीत है. दत्तात्रेय को हंसने का बहाना चाहिए और उनकी यही मंशा है की वो एक चीनी बुजुर्ग का रिकॉर्ड तोड़ दें जिसने सबसे ज्यादा जीने का रिकॉर्ड बनाया है. अपने बेटे के रहन-सहन को बदलने के लिए वो एक चाल बुनता है और उसमे शामिल है अपने बेटे को वृद्धाश्रम भेजना. दत्तात्रेय की यही शर्त है कि अगर बाबूलाल को वृद्धाश्रम नहीं जाना है तो इसके लिए उसे अपने पिता की कुछ शर्तें माननी पड़ेंगी. बाबूलाल को विवश होकर वो सारी शर्तें स्वीकार करनी पड़ती है. उसके बाद दत्तात्रेय अपनी शर्तों की वजह से उसके जीवन में एक तरह का बदलाव ले आता है. ये सभी बदलाव बाबूलाल को उसकी पुरानी जिंदगी के करीब ले आते है, जब उसकी शख्सियत कुछ और हुआ करती थी.

फिल्म में अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर का शानदार अभिनय
ये फिल्म पूरी तरह से अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर के कंधों पर अकेले चलती है. जाहिर सी बात है इस तरह की चुनौती को स्वीकार करना अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर जैसे बिरले अभिनेताओं के बस की ही बात है लिहाजा फिल्म का ग्राफ कभी भी नीचे नहीं जाता है. दत्तात्रेय की भूमिका में अमिताभ बच्चन फिल्म के पहले हाफ में कुछ ढीले नजर आते हैं क्योंकि 102 साल की उम्र में कोई भी जब हद से ज्यादा मजाक करता या फिर सक्रिय नजर आता है तो वो थोड़ा अटपटा लगता है. इस मामले में ऋषि कपूर के किरदार का ग्राफ काफी सधा हुआ है. असली मजा फिल्म में शुरू होता है मध्यांतर के बाद जब फिल्म में थोड़ी बहुत संजीदगी आ जाती है. इस फिल्म का सार बहुत ही साधारण है और यही चीज आपको अपील करेगी. एक बेटा जो जीने का अंदाज भूल चुका है, उसका पिता उसकी मदद करता है जिंदगी के रस को जीने में. जब अमिताभ बच्चन फिल्म में खुद से डायलॉग बोलते हैं कि ‘मेरा बेटा तुम्हारे बेटे से जीतकर रहेगा’ तब ताली ही बजाने का मन करता है. फिल्म के सेकंड हाफ में ये दोनों मंझे हुए अभिनेता एक साथ मिलकर बताते हैं कि अभिनय किसको कहते हैं. जिमित त्रिवेदी जो कि गुजराती फिल्मों में एक जाना माना नाम है वो भी इस फिल्म में हैं और उनका भी काम बेहद सहज दिखाई देता है.

अगर पहला हाफ फिल्म का ढीला है तो इसकी कमी दूसरे हाफ में दूर हो जाती है
अमिताभ बच्चन जब जनता को रुलाने पर उतर आते हैं तो वो समां कुछ और ही होता है और फिल्म के सेकंड हाफ में ये चीज आपको प्रचूर मात्रा में देखने को मिलेगी. फिल्म के एक सीन में जब अमिताभ बच्चन एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना ऋषि कपूर के मूड को ठीक करने के लिए गाने लगते हैं तब यही लगता है कि वो सीन बस चलता ही जाए. इसके अलावा अमिताभ बच्चन जब जिमित त्रिवेदी को अपनी बहु के अंतिम दिनों का किस्सा सुनाते हैं तब उसे देखकर यही लगता है कि इमोशनल सीन्स में अमिताभ बच्चन का कोई सानी नहीं है. उमेश शुक्ला का निर्देशन फिल्म के पहले हाफ में थोड़ा लड़खड़ाता हुआ नजर आता है लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है उनकी पकड़ मजबूत होती जाती है. जैसा कि मैंने शुरू में कहा था कि सौम्या जोशी की ये कहानी एक बेहद ही स्मार्ट कहानी है जो लोगों को अपने अंदर झांकने पर मजबूर करेगी और जब फिल्मों का इमोशनल कनेक्ट जनता के साथ बन जाता है तब ये उस फिल्म के लिए एक बड़ी जीत मानी जाती है. ‘102 नॉट आउट’ इसी श्रेणी में आती है. अगर 27 साल के बाद अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर एक साथ किसी फिल्म में आ रहे हैं तो शायद इस फिल्म को देखने की सबसे बड़ी वजह यही होनी चाहिए.

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