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किसका कल्याण

पशुओं के प्रति होने वाली क्रूरता को रोकने का कानून 1960 में ही बन गया था। पर इस कानून के तहत जैसी नियमावली अब जाकर जारी की गई है, पहले की किसी सरकार ने उसकी जरूरत महसूस नहीं की। बीते हफ्ते पर्यावरण मंत्रालय की तरफ से जारी किए गए नियमों को लेकर विवाद शुरू हो गया है, जिसे अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। दरअसल, इन नियमों को बनाना जितना आसान है, इन्हें लागू करना उतना ही मुश्किल। केरल और मिजोरम ने नए नियमों को नागरिक अधिकारों पर हमला करार देते हुए इनके विरोध का आह्वान किया है और इन्हें लागू न करने की घोषणा की है। केरल में तो मुख्य विपक्ष यानी कांग्रेस ने भी विरोध जताया है। क्या पता कुछ और राज्य भी विरोध में खड़े हो जाएं। आखिर नए नियमों में ऐसा क्या है कि हंगामा खड़ा हो गया है? नए नियमों के तहत सरकार ने पशु बाजारों में गाय, भैंस, बैल, बछड़ा, बछिया, सांड और ऊंट जैसे मवेशियों को वध के लिए खरीदे या बेचे जाने पर रोक लगा दी है। इन्हें अब उन्हीं लोगों को बेचा जा सकेगा जो लिखित गारंटी देंगे कि वे मवेशी को दूध या कृषि संबंधी काम के लिए खरीद रहे हैं। इसके लिए पहचान का प्रमाण और पते का प्रमाण भी देना होगा। खुद को किसान साबित करने के लिए कृषि राजस्व संबंधी दस्तावेज दिखाने होंगे। नई नियमावली ने और भी बहुत-सी कागजी कार्यवाही को जरूरी बना दिया है। मसलन, खरीदार को बिक्री के सबूत की प्रति विक्रेता समेत जिले के स्थानीय राजस्व अधिकारी, पशु चिकित्सा अधिकारी और पशु बाजार समिति को देनी होगी।

केरल और पूर्वोत्तर के राज्यों के विरोध की मूल वजह वहां के लोगों की भोजन संबंधी आदतें हैं। इसी तरह मांस कारोबारियों की तरफ से होने वाले विरोध की वजह भी साफ है, कि नए नियमों से उनका कारोबार बुरी तरह प्रभावित होगा। पर कुछ अन्य कारोबार भी चपेटे में आएंगे। मसलन, चमड़ा उद्योग तथा ब्रश, बैग, बटन आदि बनाने वाले उद्योग। भाजपा सरकार सोचती होगी कि गोरक्षा के उसके बड़े मकसद की खातिर ये सब कारोबारी नुकसान सहे जा सकते हैं। पर क्या नए नियम सचमुच गोरक्षा तथा पशु कल्याण में मददगार साबित होंगे? सरकार ने पशुओं की खरीद-बिक्री के लिए इतनी ज्यादा कागजी कार्यवाही को जरूरी बना दिया है कि तमाम किसानों और ग्वालों को ये बोझ ही मालूम होंगे। मवेशी खरीदना-बेचना अब बेहद मुश्किल हो जाएगा। एक नए तरह के इंस्पेक्टर राज की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

अधिकतर बड़े राज्यों में पहले से गोवध निषेध का कानून लागू है। उत्तर भारत, मध्य भारत और पश्चिम भारत में तो ये कानून काफी सख्त बना दिए गए हैं जिनके तहत दस साल तक के कारावास का प्रावधान है। फिर, नए नियमों की जरूरत क्यों महसूस की गई? पशुओं की खरीद-फरोख्त का नियमन राज्य का विषय है। इसलिए विरोध जताने वाले राज्यों ने नई नियमावली को संघीय ढांचे को चोट पहुंचाने वाला करार दिया है। पर पशु कल्याण केंद्र का विषय है और नई नियमावली की अधिसूचना केंद्र ने पशु बाजार के नियमन के तर्क पर जारी की है। पर क्या इससे सचमुच पशु कल्याण होगा? क्या इस अधिसूचना के पीछे कोई राजनीतिक मंशा काम कर रही है? जो हो, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि व्यावहारिकता के तकाजे की अनदेखी की गई है।

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