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गाद को बहने दो

प्रत्येक नदी में तीन तरह के कण होते हैं: सैंड, सेडिमेंटेशन और सिल्ट यानी रेत, गाद और तलछट। सबसे मोटा कण रेत, उससे बारीक गाद और उससे बारीक कण को तलछट कहते हैं। रेत का काम होता है नदी के पानी को सोख कर उसे सुरक्षित रखना। नदी से जितना रेत निकालते जाएंगे, नदी की जलसंग्रहण क्षमता उतनी कम होती जाएगी। जिस नदी में सीमा से अधिक रेत का खनन होगा, वह नदी अंतत: सूख जाएगी। इसी कारण मध्यप्रदेश शासन ने आइआइटी-खड़गपुर की रिपोर्ट आने तक नर्मदा की मुख्यधारा में रेत खनन पर रोक लगा दी है।

तलछट का काम होता है, नदी के तल में कटाव व ढाल की रूपरेखा तैयार करना। तलछट के साथ-साथ छेड़छाड़ करेंगे, तो नदी का बहाव और उसकी गति प्रभावित होगी। गाद को नदी के पानी के साथ क्रिया करके नदी जल की गुणवत्ता बढ़ानी है। गाद को नदी किनारे फैल कर, नदी का उपजाऊ मैदान बनाना है; मैदान को ऊंचा करना है। समुद्र किनारे डेल्टा का निर्माण करना है। समुद्र में मिल कर उन मूंगा भित्तियों का आवास बनाना है, जिन्हें कार्बन अवशोषण की सबसे उत्तम प्राकृतिक प्रणाली माना जाता है। इन सभी को करने के लिए गाद को बह कर आगे जाना है। इस नाते गाद, वरदान है। पर यही गाद नदी मध्य में सिमट कर बैठ जाए, तो समस्या है।

गाद जैसे ही नदी मध्य जमेगी, नदी का प्रवाह बदल जाएगा। नदी कई धाराओं में बंटेगी; किनारों को काटेगी; तबाही लाएगी। यदि गाद किनारे से बाहर नहीं फैली, तो नदी के मैदान का उपजाऊपन और ऊंचाई, दोनों घटने लगेंगे। ऊंचाई घटने से किनारों पर बाढ़ का दुष्प्रभाव अधिक होगा। डेल्टा तक गाद नहीं पहुंची, तो डेल्टा भी डूबेंगे। कार्बन का नब्बे प्रतिशत अवशोषण समुद्र ही करता है। गाद को रास्ते में रोक कर हम समुद्र की कार्बन अवशोषण शक्ति घटाएंगे। परिणामस्वरूप, वायुमंडल का ताप बढेÞगा, मौसम बदलेगा और अंतत: हम सभी उसके शिकार होंगे। स्पष्ट है कि वायुमंडल के ताप, मौसम, उपजाऊपन, डेल्टा, बाढ़ के दुष्प्रभाव और नदी की जैव विविधता से गाद का बेहद गहरा रिश्ता है। उत्तर प्रदेश से पश्चिम बंगाल तक गंगा मध्य रुक गई गाद के कारण कटान का नया संकट पैदा गया है। माल्दा और मुर्शिदाबाद जिलों के कई गांव कट कर अपना अस्तित्व खो चुके हैं। जिस सुल्तानगंज में नदी कभी अस्सी फीट तक गहरी थी, वहां ऊपर उठा तल अब समस्या हो गया है। गाद नहीं पहुंचने के कारण सुंदरबन का लोहाचारा द्वीप डूब चुका है। कई द्वीपों पर डूबने की चेतावनी चस्पां हो गई है। गंगा जलमार्ग परियोजना पर भी संकट मंडरा रहा है। गंगा में जैव विविधता का संकट गहरा गया है, सो अलग।

आज हमारे सामने गंगा गाद संकट के तीन समाधान हैं: पहला कि गंगा में आने वाली गाद की मात्रा नियंत्रित की जाए। दूसरा, गाद को गंगा में बहने दिया जाए। तीसरा यह कि गाद को गंगा किनारे के मैदानों पर फैलने से न रोका जाए। प्रथम समाधान हासिल करने के लिए समझना होगा कि गंगा समेत कई मुख्य नदियों के मूल स्रोत हिमालय में स्थित हैं। हिमालय में भूकम्प की वृत्ति जितनी बढ़ेगी, बिहार की नदियों में गाद उतनी बढ़ेगी। सुरंग, विस्फोट, चौड़ी सड़कें, जंगल कटान, अधिक निर्माण, अधिक वाहन, अधिक शोर, अधिक छेड़छाड़- ये सभी हिमालय को हिलाने के काम हैं। जैसे ही हिमालय में उक्त गतिविधियां नियंत्रित होंगी- उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल की गंगा में गाद की मात्रा स्वत: नियंत्रित होने लगेगी। नियंत्रण के लिए मिट्टी अपरदन रोकने का काम गंगा प्रदेशों को अपने-अपने भूगोल में भी करना होगा। वर्षाजल को धरती के पेट में बिठा कर, मिट्टी की नमी बढ़ा कर तथा छोटी वनस्पतियों का परिवार बढ़ा कर यह संभव है।

यमुना में गाद को बहने के लिए 0.75 मीटर प्रति सेकंड वेग का प्रवाह चाहिए। यह वेग ही है, जो किसी भी नदी की गाद की प्राकृतिक तौर पर निकासी करता रहता है। बांध-बैराजों के फाटक प्रवाह के वेग को इतना धीमा कर देते हैं कि गाद, पानी के साथ बह नहीं पाती। पानी आगे बह जाता है। गाद नीचे बैठ जाती है। प्रवाह बढ़ाने के लिए गंगा बेसिन की हर नदी और प्राकृतिक नाले में पानी की आवक भी बढ़ानी होगी। इसके लिए छोटी नदियों को पुनर्जीवित करना होगा। शोधित जल नहर में और ताजा पानी नदी में बहाना होगा। नदियों को सतह अथवा पाईप से नहीं, बल्कि भूगर्भ तंत्रिकाओं के माध्यम से जोड़ना होगा। जहां कोई विकल्प न हों, वहां लिफ्ट कैनाल परियोजनााओं को ना बोलना होगा। जलदोहन नियंत्रित करना होगा। वर्षा जल संचयन ढांचों से कब्जे हटाने होंगे। जितना और जैसा जल जिससे लिया, उसे उतना और वैसा जल वापस लौटाना होगा। गंगा और इसकी सहायक नदियों में रेत खनन नियंत्रित करने से नदी जलसंग्रहण क्षमता बढ़ेगी। इससे भी गंगा का प्रवाह बढ़ेगा।

तीसरा समाधान हासिल करने से पहले जवाब चाहिए कि गंगा को नदी किनारे के मैदानों में बहने से रोका किसने है? गाद को किनारे बहा ले जाने का काम बाढ़ का है। पहली रोक तो बाढ़ मुक्ति के नाम पर बने तटबंधों ने लगाई। यातायात सुविधा के नाम पर नदियों के किनारे निर्मित और प्रस्तावित एक्सप्रेस-वे इस रोक को आगे चल कर और बढ़ाएंगे। दिल्ली-कोलकाता कॉरीडोर और ब्रह्मपुत्र राजमार्ग यही करेंगे। बहुत संभव है कि जलमार्गों में जहाजों के लिए प्रस्तावित बहुआयामी टर्मिनल भी यही करें। दूसरी रोक लगाने का काम ‘रिवर फ्रंट डेवलपमेंट’ के नाम पर नदियों को दो दीवारी चैनल में बांधने वाली परियोजनाएं कर रही हैं। तीसरी रोक नदी भूमि पर बढ़ते अतिक्रमण और निर्माण के कारण लगी है। पटना में राजेंद्र नगर जैसी बसावटों ने क्या किया है?  सारी सभ्यताएं नदी के ऊंचे तट की ओर बसाई गर्इं। हम निचले तट की ओर भी निर्माण कर रहे हैं। इस तरह नदी किनारे की प्राकृतिक जल निकासी प्रणाली में अवरोध पैदा करके हमने चौथी रोक लगाई है। हमने छोटी-छोटी नदियों, नालों और प्राकृतिक तौर पर ऊबड़-खाबड़ भूगोल के जलनिकासी महत्त्व को समझे बगैर उन पर कब्जे और निर्माण नियोजित किए हैं। पांचवीं रोक, आने वाला मल है। छठी रोक का काम नदियों में अंधाधुंध रेत खनन ने किया है। रेत खनन, किनारों को गहरा करता है। गहरे किनारे गाद को फैलने से रोकते हैं। पहले आप्लावन नहरें पलट पानी और गाद को खेतों तक ले जाती थीं। आप्लावन नहर प्रणाली अब लगभग नष्ट हो चुकी है। इनका नष्ट हो जाना गाद को फैलने देने में बाधक सातवीं रोक है। स्पष्ट है कि आप्लावन नहरें होंगी, तो गाद फैलेगी। रेत खनन घटेगा, तो गाद फैलेगी। गंगा बाढ़ क्षेत्र में निर्माण घटेगा, तो गाद फैलेगी। गंगा में मल घटेगा, तो गाद बहेगी।

गौरतलब है कि बिहार सरकार ने गाद समस्या को राष्ट्रीय पटल पर ले आने की शुरुआत कर दी है। फरक्का बैराज के कारण ठहरी गाद समस्या से सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित तो पश्चिम बंगाल है; फिर पश्चिम बंगाल सरकार इस मुहिम से दूर क्यों भाग रही है? फरक्का बैराज से आगे गाद कम जाने के कारण नुकसान बांग्लादेश को भी है। पर चुप्पी वहां भी है। बिहार सरकार फरक्का बैराज की समीक्षा की मांग जरूर करे; उत्तराखंड और नेपाल से जरूर कहे कि वे अपने यहां भूस्खलन पर लगाम लगाएं; लेकिन इससे पहले गाद संकट के उन सभी स्थानीय कारणों को समाप्त करने की पहल करे, जिनके लिए बिहार जल प्रबंधन कार्यक्रम स्वयं दोषी है; तभी उसकी संजीदगी सुनिश्चित होगी और समाधान में सभी की सहभागिता भी।

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