सियासी शतरंज
नीतीश कुमार वाकई सियासत के मंजे खिलाड़ी हैं। अपनी रणनीतियों का भेद नहीं देते किसी को। लालू की तरह बेबाकी से बोलने का स्वभाव नहीं है। तभी तो न राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर साफ राय जताई और न विपक्षी एकता के सवाल पर। याद कीजिए 2013 में किस तरह भाजपा का सहयोगी होते हुए भी नीतीश ने पहले से दिया डिनर का न्योता अचानक रद्द कर दिया था। भाजपा की पटना में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक थी। मुद्दा नरेंद्र मोदी को बनाया था जो तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। नीतीश ने शर्त लगा थी कि उनके डिनर में मोदी के लिए जगह नहीं होगी। यहीं से हुई थी दोनों पुराने सहयोगी दलों के बीच खटपट की शुरुआत? लोकसभा चुनाव में मोदी का ऐसा जादू चला कि नीतीश धराशायी हो गए। मजबूरी में कांग्रेस और लालू के साथ मिल कर महागठबंधन बनाया। जिसने मोदी के अश्वमेध में अड़ंगा लगा दिया। विधानसभा चुनाव में मोदी का सिक्का चल नहीं पाया। लालू ने नीतीश को मुख्यमंत्री तो बनवा दिया पर अपने एक नौसीखिए बेटे के लिए उपमुख्यमंत्री और दूसरे के लिए भी मंत्री पद झटक लिए। मतदाताओं ने नीतीश को झटका दे दिया था। लालू और नीतीश दोनों लड़े तो बराबर सीटों पर थे। लेकिन जीती ज्यादा सीटें लालू ने। नीतीश समझ गए कि लालू के दबाव में काम करने से उनकी छवि पर आंच आएगी। सो, नरेंद्र मोदी के प्रति नजरिया बदल दिया उन्होंने। अब उनके पास लालू को छोड़ने का विकल्प है। भाजपा समर्थन देकर उनकी सरकार को चलवाने की कई बार पेशकश कर चुकी है। इसी दम पर वे लालू के बचाव में नहीं बोल रहे। नोटबंदी के मोदी के फैसले का भी उन्होंने समर्थन कर समूचे गैरभाजपा दलों को सकते में डाल दिया था। इस बार फिर दिखा दी पैंतरेबाजी। विपक्षी एकता के मकसद से बुलाई गई सोनिया की बैठक से तो दूर रहे पर अगले ही दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ लंच करने का कार्यक्रम बना दिया। बहाना बनाया सूबे की विकास योजनाओं का। पर सियासी निहितार्थ कौन नहीं लगा रहा। भले नीतीश ने तो यही कह दिया कि मुलाकात का कोई राजनीतिक मतलब नहीं निकालना चाहिए। पर जिस मोदी से कल तक इस कदर चिढ़ते थे कि अपने घर भोजन कराने से इनकार कर दिया था खुद कैसे पहुंच गए, उनके घर भोजन करने। सियासत में न कोई स्थाई दोस्त होता है और न दुश्मन, इसे सिद्ध कर दिया है नीतीश ने।
पुरानी अदावत
सुमो को बिहारी बाबू पर गुस्सा क्यों न आए। सुमो हैं बिहार के भाजपा नेता सुशील मोदी। रही बिहारी बाबू की बात तो अपने शत्रु भैया की शख्सियत से कौन वाकिफ नहीं। सुमो और बिहारी बाबू दोनों एक ही पार्टी के ठहरे। तो भी दोनों में वैचारिक भिन्नता गजब की है। गाहे-बगाहे शत्रुघ्न सिन्हा जहां लालू यादव और नीतीश कुमार की सराहना करते रहते हैं वहीं सुमो लालू की टांग खींचने का कोई मौका नहीं चूकते। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों लालू के खिलाफ विचाराधीन पुराने चार मामलों को फिर से चलाने का आदेश दिया ही था कि एक और मुसीबत आ पड़ी। प्रवर्तन निदेशालय ने उनके ठिकानों पर छापे डाल दिए। सुमो भी उनकी संपत्ति को लेकर लगातार आक्रामक तेवर दिखा रहे हैं। ऐसे में बिहारी बाबू ने लालू यादव को राहत देने वाला बयान दिया तो सुमो भड़क गए। उन्हें भाजपा का शत्रु बता नसीहत दे डाली। शत्रुघ्न सिन्हा भी चूकने वाले कहां हैं। सुशील मोदी पर फौरन कर दिया पलटवार। इससे पहले भी बिहारी बाबू ने अपना विरोध करने वाले भाजपा नेताओं को कभी घास नहीं डाली। अलबत्ता चुनौती ही दे दी कि वे जो चाहे कर लें उनका। हैरानी की बात है कि भाजपा का आलाकमान अपने इस पूर्व मंत्री और एक दौर के स्टार प्रचारक व सांसद से सीधे टकराव नहीं लेना चाहता। सुमो आला कमान की इस मजबूरी या रणनीति जो भी कहें, से वाकिफ होते हुए भी उनसे अक्सर भिड़ जाते हैं। दोनों पटना के हैं तो क्या, पटती तो उनमें रत्तीभर नहीं।
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