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पटाखों को लेकर बहुत मीम पढ़े होंगे मगर सच जानने के बाद यकीं मानिये आप भी घृणा करोगे पटाखों से

After reading the truth, you will be dislike the firecrackers.

 

आज लोगों के लिए दिवाली का मतलब पटाखे है लेकिन दिवाली पर पटाखों का इतिहास 1940 से ज्यादा पुराना नहीं है. 

पर्यावरण और मानव जाति के लिए घातक होते जा रहे वायु, जल , मृदा , ध्वनि और रेडियोएक्टिव और न जाने और कैसे कैसे प्रदूषण हमारे आने वाली पीढ़ियों के लिए हम अभिशाप छोड़कर ही जायेंगे. एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं- दिवाली में पटाखे छुड़ाना. कभी आपने सोचा कि दिवाली में पटाखे छुड़ाने या फोड़ने की प्रथा कब से शुरू हुयी? क्या भगवन श्री राम चंद्र जब अयोध्या वापिस आये थे तो अयोध्यावासियों ने पटाखे फोड़े थे, जवाब आएगा नहीं. तो भी आपने कभी सोचा दिवाली में पटाखे फोड़ने की शुरुआत कहां से हुई?

मुगल साम्राज्य से पहले पटाखों के साथ दिवाली मनाने का कोई प्रमाण नहीं है. उस समय में दिवाली दीयों से मनाई जाती थी. 1667 में औरंगजेब ने दिवाली पर सार्वजनिक रूप से दीयों और पटाखों के प्रयोग पर पाबंदी लगा दी थी. मुगलों के बाद, अंग्रेजों ने एक्स्प्लोसिव एक्ट पारित किया. इसमें पटाखों के लिए इस्तेमाल होने वाले कच्चे माल को बेचने और पटाखे बनाने पर पाबंदी लगा दी गई.

1940 में एक्स्प्लोसिव एक्ट में संशोधन किया गया. एक ख़ास स्तर के पटाखों को बनाना वैध कर दिया गया. शिवकाशी तमिलनाडु के अय्या नादर और शनमुगा नादर ने इस दिशा में पहला कदम रखा. नादर ब्रदर्स ने इस एक्ट में संशोधन का फायदा उठाया और 1940 में पहली पटाखों की फैक्ट्री डाली. नादर ब्रदर्स ने पटाखों को दिवाली से जोड़ने की कोशिश शुरू की. माचिस फैक्ट्री की वजह से उन्हें पहले से ही प्लेटफॉर्म मिला हुआ था. 1980 तक अकेले शिवकाशी में 189 पटाखों की फैक्ट्रियां हो गयीं थीं.

दिवाली में पटाखों के फोड़ने के से पहले उन हज़ारों मासूम बच्चों का भी सोचियेगा जो लाखों की तादात में इस उद्योग में लाये जा रहे हैं और उनका शोषण हो रहा है, इस तरह हम जाने अनजाने हम नादर ब्रदर्स की परम्परा को ही आगे बढ़ा रहे हैं. अभी हाल ही में जब दिल्ली सरकार ने नवंबर 2017 में 5 दिनों के लिए सरे स्कूल इसलिए बंद करवा दिए थे क्यूंकि दिल्ली में स्मोग बहुत खतरनाक स्तर तक पहुँच गया था.

बात सिर्फ दिवाली में पटाखों की ही नहीं बल्कि अन्य तरह से फैलने वाले प्रदूषणों का भी है. हम बेवजह सड़कों वाहनों की भीड़ इकट्ठी करते हैं जबकि पब्लिक ट्रांसपोर्ट से या एक एक दिन छोड़कर आपने निजी वाहनों का इस्तेमाल कर इस दिशा में छोटा ही सही मगर अमूल्य योगदान दे सकते हैं. सोचिये आप कर सकते हैं, हमें सुप्रीम कोर्ट नहीं स्वयं के निर्णयों का मज़ाक उड़ाना चाहिए.

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