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निर्दोष लोगों की हत्या के लिए हमारी बीमार मानसिकता जिम्मेदार: मॉब लिंचिंग

Our ill-mentality is responsible for the killing of innocent people: Mob Lynching

हाल के वर्षों में देश में एक नया चलन शुरू हुआ है. यह चलन है फैसला ‘ऑन द स्पॉट’ का. इसे अंग्रेजी में कहें तो ‘मॉब लिंचिंग’ का. लिंचिंग क्या है इसे समझने के लिए ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी देख सकते हैं. उसमें ‘लिंचिंग’ का अर्थ है-(of a group of people) kill (someone) for an alleged offence without a legal trial. ऑक्सफोर्ड की इस लाइन में दो सबसे अहम शब्द हैं- ‘कथित अपराध (alleged offence) और कानूनी जांच (legal trial). इन दोनों शब्दों को मॉब लिंचिंग से जोड़ें तो पता चलेगा कि कथित अपराध के शक में कानून को धता बताते हुए किसी की हत्या कर देना एक नया फैशन सा बन गया है.

अपराध जैसा भी हो, कोर्ट में दोष साबित न होने तक उसे आरोप मानते हैं. इसके लिए लंबे-चौड़े कानून हैं, आईपीसी की कई धाराएं हैं. फिर चरण-दर-चरण छानबीन और सुनवाई है. मॉब लिंचिंग की जो भी घटनाएं हो रही हैं या पूर्व में हुई हैं, उनकी मानसिकता समझें तो पता चलेगा कि लोगों को अब कानून हाथ में लेने का तनिक भी डर नहीं. भीड़ को लगता है कि मामला पुलिस में जाए, फिर कोर्ट में जाए तब तक कौन कितना इंतजार करे. इस जल्दबाजी में निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं.

असम में दो भाइयों की हत्या
हालिया घटना असम के कार्बी आंगलोंग जिले की है जहां शुक्रवार को दो युवकों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई. सिर्फ इस शक पर कि वे दोनों बच्चा चोर हैं. तफ्तीश में पता चला कि वे दोनों भाई थे.

मामले की जांच कर रही पुलिस ने बताया है कि दो भाई अभिजीत नाथ और निलुत्पल दास कार्बी के कांथे लांग्शू पिकनिक स्पॉट पर जा रहे थे. रास्ते में पंजुरी कछारी गांव के पास लोगों के एक समूह ने इनकी गाड़ी पर हमला कर दिया. चश्मदीदों की मानें तो भीड़ इतनी हिंसक हो गई कि उन्होंने दोनों भाइयों पर बांस और बल्लियों से ताबड़तोड़ हमला कर दिया. इसका जो वीडियो सामने आया उसमें देखा जा सकता है कि कैसे दोनों भाई दया की भीख मांग रहे हैं और तब भी लोग जान लेने पर उतारू हैं. वीडियो में दोनों भाइयों के शव खून से लथपथ दिखे.

सवालों में फंसी पुलिस क्या दे जवाब
चलिए कुछ देर के लिए कायदे-कानून को यह कहते हुए किनारे रख देते हैं कि कोर्ट-कचहरी के चक्कर में कभी-कभार दोषी या तो छूट जाते हैं या फिर उनकी सजा मामूली होती है. सो, इन कानूनी पचड़ों के खिलाफ लोगों में गहरी नाराजगी है इसलिए वे ‘फैसला ऑन द स्पॉट’ का सहारा ले रहे हैं. लेकिन क्या इन ‘खूनी’ लोगों से यह नहीं पूछा जाना चाहिए कि ऐसे फैसले लेने का अधिकार आपको कौन देता है. लेकिन अव्वल बात यह है कि पूछे कौन. पूछने वाली पुलिस तो खुद सवालों के ढेर में दबी है.

अगर पुलिस सही होती तो गुवाहाटी मामले में मजिस्ट्रेट को यह आदेश न देना पड़ता कि इसकी छानबीन हो कि कहीं पुलिस की ओर से कोई लापरवाही तो नहीं बरती गई. इससे भी शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि इसी घटना में एक ‘पुलिसकर्मी’ को घटना का वीडियो बनाते हुए देखा गया. सोचना काफी आसान है कि जब रक्षक खुद वीडियो बनाने में व्यस्त हो तो भीड़ भला उन्मादी क्यों न हो. गुवाहाटी वाली खबर भले ‘अपुष्ट’ हो लेकिन खाकी पहने एक शख्स को, जिसके पुलिसकर्मी होने का संदेह है, घटना का वीडियो क्लिप बनाते देखा गया.’

हिंसक प्रवृत्ति के पीछे कौन
एक अहम सवाल यहां मौजूं है कि समाज में अचानक ऐसी हिंसक घटनाओं में इजाफा क्या पुलिस प्रशासन के लचर रवैये की परिणति है या कुछ और. इसका एक लाइन में जवाब है कि पुलिस पहले भी थी लेकिन तब ऐसी घटनाएं नहीं होती थीं. आज अगर हो रही हैं तो कानून से इतर कोई न कोई उत्प्रेकर जरूर है जो लोगों को खून-खराबे पर उतार रहा है.

पलवल का 16 साल का जुनैद खान, राजस्थान में 55 साल के पहलू खान, केरल के अत्ताप्पादि का 30 साल का आदिवासी मधु, बंगाल में 19 साल के अनवर हुसैन और हाजीफुल शेख की घटनाएं ऐसी हैं, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में मॉब लिंचिंग का नंगा सच जाहिर करती हैं.

आंकड़े देखें तो देश में 2010 से लेकर 2017 के बीच मॉब लिंचिंग की 63 घटनाएं हुई, जिसमें 28 लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई. आपको सुनकर हैरानी होगी कि ऐसी घटनाओं में से 52 फीसदी अफवाहों पर आधारित थीं. और इन अफवाहों के पीछे सोशल साइट्स जिम्मेदार देखे गए.

सोशल मीडिया और हम
तब मिला जुलाकर बात इसी पर आ टिकती है कि सोशल मीडिया पर अफवाह हम लोगों के बीच का ही कोई फैलाता है और अफवाहों को सच मानकर निर्दोष लोगों की हत्या भी हमारे-आपके जैसे लोग ही करते हैं. फिर क्या कहें इस कुत्सित और कुंठित मानसिकता का जहां किसी ‘आरोपी’ को अपनी बात कहने तक का मौका नहीं देते. ऐसा कहने में कोई गुरेज नहीं कि हाल के वर्षों में लोगों की मानसिकता तेजी से बदली है. जिसकी वजह समाज में फैली निराशा, बढ़ती बेरोजगारी, उत्तरदायित्व और जिम्मेदारी का आभाव, लोगों को साथ लेकर चलने की भावना में कमी, हम बड़े तो तुम छोटे की सोच, श्रेणियों, धर्मों और पंथ-समुदाय में बंटे लोग हैं.

लेकिन दुर्भाग्यवश हम इसे नोटिस नहीं कर पा रहे क्योंकि जिंदगी इतनी आपाधापी में गुजर रही है कि सब अपने आज (मौजूदा वक्त) को तिलांजलि देकर अपना कल संवारने में लगे हैं. और यह आज और अभी की मारामारी ही इंसान को इंसान का दुश्मन बनाए जा रही है.

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