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बिहार: शराबबंदी के बाद अब दहेजबंदी पर कर रही है विचार

अब दहेजबंदी

बिहार सरकार शराबबंदी के बाद अब दहेज की कुप्रथा रोकने के लिए दहेजबंदी पर विचार कर रही है। बेटियों को दहेज के अग्निकुंड से बचाने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लोक संवाद कार्यक्रम में निर्णय लिया और इस बाबत अभियान चलाने के लिए निर्देश दिए। इस अभियान में दहेज के साथ-साथ महिलाओं की पीड़ा और बाल विवाह जैसी कुरीतियों के प्रति भी जागरूकता फैलाई जाएगी। बेशक, सरकार की यह नई मुहिम यदि सफल हो जाती है तो इससे एक बहुत बड़ा सामाजिक बदलाव देखने को मिलेगा। खासकर उस वर्ग में जहां दहेज को अपनी प्रतिष्ठा-प्रदर्शन का मानक मान लिया जाता है और दहेज के लोभी महिषासुर विवाह को एक मंडी बनाकर मुंहमांगी बोली लगाते हैं। हमारे देश में दहेज जैसी जानलेवा कुरीति की रोकथाम करने के लिए 1961 में दहेज निषेध अधिनियम पारित किया गया था। आज कहां है वह कानून और कहां हैं उसका पालन करने वाले? क्या वह सिर्फ पन्नों पर उकेरे कुछ शब्द मात्र बन कर नहीं रह गया? तमाम कानूनों के बावजूद आंकड़े बताते हैं कि दहेज के नाम पर रोजाना औसतन 23 हत्याएं होती हैं। 2011 में 8618, 2012 में 8233, 2013 में 8083 और 2014 में 8455 महिलाओं को दहेज के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी। असल मायनों में दहेज ही बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या और बालिका अशिक्षा जैसी समस्याओं की अहम जड़ है। इस जड़ को उखाड़े बिना बेटियों को खुला आकाश उपलब्ध नहीं कराया जा सकता। दरअसल, यह बीमारी तब और भी विकराल और भयानक नजर आने लगती है जब शिक्षित वर्ग भी दहेज प्रथा के पोषण में अग्रणी भूमिका में नजर आने लगता है। पढ़े-लिखे लोगों की मांगें तो और भी विचित्र होती हैं। सर्वविदित और स्पष्ट है कि हमारे समाज में गहराई तक फैली इस बीमारी को मिटाने के लिए केवल कानून बनाना पर्याप्त नहीं है। यह एक संवेदनशील क्षेत्र है जहां कानून का पालन होना टेढ़ी खीर है। वैसे भी कानून किसी भी सामाजिक बुराई को दूर करने के लिए कमजोर हथियार सिद्ध होता रहा है। दहेज जैसी कुप्रथा सामाजिक जन-जागृति से ही मिटाई जा सकती है। इस दिशा में बिहार सरकार की निर्णयात्मक पहल का पूरे देश में अनुसरण होना चाहिए और इसके पालन के लिए सभी को मिलकर आगे आना होगा।
’देवेंद्रराज सुथार, जोधपुर.

हाशिये पर हिंदी

हमारे देश में हिंदी महज एक जुबान नहीं बल्कि एक वर्ग (क्लास) भी है। भले ही यह एक फिल्म का डायलॉग है पर आज का कड़वा सच है। इसे हम अपने देश की विडंबना ही कहेंगे कि हमारी मातृभाषा को आज की पीढ़ी हेय दृष्टि से देखती है। मध्य वर्ग हो या निम्न कहा जाने वाला वर्ग, सबकी यही उम्मीद है कि हमारे बच्चे और कुछ सीखें या न सीखें, अंग्रेजी अच्छे से बोलना जरूर सीख जाएं। अगर आपकी अंग्रेजी अच्छी है, तो सामने वाले का आपको देखने का नजरिया बदल जाएगा। आज अखबार उठाओ, नौकरी का कोई भी विज्ञापन देखो तो सबसे पहली मांग यही रहती है कि आपको अंग्रेजी बोलना आना जरूरी है। जैसे यह कोई भाषा नहीं, आपकी योग्यता का सबूत हो! चाहे आपके पास कितनी भी डिग्रियां या प्रमाण पत्र हों, आप तब तक योग्य नहीं जब तक अंग्रेजी नहीं जानते!

जिस देश में सबसे ज्यादा हिंदीभाषी हैं, उसी देश में हिंदी हाशिये पर है। माना कि आज जमाना प्रतिस्पर्धा का है और वैश्वीकरण के इस दौर में विभिन्न भाषाओं का ज्ञान होना आपकी काबिलियत में इजाफा करेगा। मगर इसका यह मतलब कतई नहीं कि एक भाषा आपका हुनर तय करेगी।यह एक ऐसा मर्ज है जिसका इलाज मिलना मुश्किल हो गया है। आज जितना सम्मान विदेशों में हमारी भाषा को मिल रहा है, काश उतनी कद्र हमारे देशवासी भी करना शुरू कर दें।
’शिल्पा जैन सुराणा, वरंगल, तेलंगाना

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