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क्या SP-BSP 25 साल पुरानी दुश्‍मनी खत्‍म कर दोहरा पाएंगे इतिहास, जानिए रिपोर्ट…

यूपी: गोरखपुर-फूलपुर लोकसभा उपचुनावों में देश भर की निगाहें टिकी हैं. उसकी एक बड़ी वजह यह है कि धुर विरोधी सपा और बसपा ने इन सीटों तालमेल किया है. बसपा ने उपचुनाव नहीं लड़ने की अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए किसी प्रत्‍याशी को तो इन दोनों ही सीटों पर नहीं उतारा लेकिन सपा के प्रत्‍याशी को समर्थन देकर एक तरह से 2019 के पहले बिहार की तर्ज पर महागठबंधन के संकेत जरूर दे दिए हैं. ऐसे में यदि नतीजा सपा के अनुकूल आता है तो 2019 में ‘मोदी लहर’ को रोकने के लिए यूपी में सपा-बसपा एक साथ एक मंच पर आ सकते हैं. लेकिन यह काफी हद तक तभी सफल होगा जब इन उपचुनावों में अपेक्षित नतीजे मिलेंगे.

लिटमेस टेस्‍ट
वर्ष 1993 में सपा नेता मुलायम सिंह और बसपा नेता कांशीराम ने पहली बार सपा-बसपा का गठबंधन किया था. नतीजतन विधानसभा चुनावों में सपा को 100 से ज्‍यादा और बसपा को 67 से मिली थीं. इस तरह पहली बार सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी थी लेकिन 1995 में बसपा के गठबंधन तोड़ने की घोषणा और ‘गेस्‍टहाउस’ कांड के बाद सियासी विरोध निजी हो गया और उसके 25 बाद अब फिर दोनों दलों ने कड़वाहट खत्‍म करने के संकेत दिए थे. हालांकि उस दौर में मुलायम सिंह और कांशीराम ने ‘राम लहर’ को रोकने में तो सफलता हासिल कर ली थी लेकिन इस दौर का बड़ा सवाल यह है कि क्या अब माया व अखिलेश मिलकर मोदी लहर को रोकने में कामयाब होंगे?

वर्ष 1993 में राम लहर के दौरान जब मुलायम और कांशीराम ने गठबंधन किया था, तब सियासत का रुख अलग था और दोनों चेहरों की चमक भी अलग थी. तब के दौर में मंडल आयोग ने ओबीसी वोटरों को एकजुट किया था और मुलायम सिंह यूपी में उनका निर्विवाद चेहरा थे. इसीलिए यह जातीय गठजोड़ ‘राम लहर’ को रोकने में कामयाब हो गया था. अब ‘मोदी लहर’ को रोकने के लिए इस तालमेल का लिटमेस टेस्‍ट होने जा रहा है.

अखिलेश यादव और मायावती
अखिलेश यादव और मायावती के लिए परिस्थतियां अलग हैं. 2014 लोकसभा चुनाव में ‘मोदी लहर’ के सामने बसपा का जहां खाता नहीं खुला था, वहीं अखिलेश की पार्टी केवल परिवार की सीटें ही बचाने में कामयाब हो पाई. इसके बाद 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में एक बार फिर मोदी लहर चली और भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला. सपा-बसपा को एक बार फिर करारी हार का सामना करना पड़ा. दोनों परिस्थतियों में अंतर यह भी है कि तब मुलायम-कांशीराम के साथ ओबीसी तबके की उम्मीदें जुड़ी थीं, लेकिन बदलते परिवेश में अखिलेश-मायावती के सामने ओबीसी की उम्मीदें टूटती दिखाई दे रही हैं और दोनों नेता सियासत के सबसे बुरे दौर से गुजर रहे हैं.

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